विश्वामित्र का तप और वशिष्ठ जी का सत्संग

विश्वामित्र का तप और 
वशिष्ठ जी का सत्संग

     सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! एक बार की बात है कि विश्वामित्र जी वशिष्ठ जी के यहाँ आये, तो विश्वामित्र जी मिलन-भेंट-स्वागतार्थ वशिष्ठ जी को अपना दस हजार वर्ष के तप का फल देते हुये अपने को बड़े ही गौरवान्वित हुये, तब तक वशिष्ठ जी ने भी अतिथि स्वागतार्थ विश्वामित्र जी को एक क्षण का सत्संग फल बड़े ही खुशी से सुपुर्द (दान) किया । विश्वामित्र जी को वास्तव में सत्संग की महिमा का पता तो था नहीं, इसलिए एक क्षण का सत्संग फल दान सुनकर काफी रुष्ट या नाराज हो गये कि हमने आपको दस हजार वर्ष के तप का फल दिया है और आप हमारी महत्ता कम करने हेतु या मर्यादा गिराने हेतु एक क्षण का सत्संग फल दे रहे हें । इससे तो अच्छा था कि आप दिये ही नहीं होते ताकि हमारी मर्यादा तो बची रहती । इस प्रकार वशिष्ठ जी ने हॅंसते हुये कहा कि तुम झूठ-मूठ में नाराज हो रहे हो, चलकर किसी से पता कर लो कि तुमने दिया कितना है और तुम पाये कितना हो ? दोनों महर्षि और ब्रह्मर्षि इन्द्र के यहाँ फैसला निर्णय हेतु गये कि दोनों- दस हजार वर्ष का तप और एक क्षण का सत्संग में कौन सा फल अधिक या बड़ा है यानी दस हजार वर्ष तपस्या का फल बड़ा है या एक क्षण के सत्संग का ? इन्द्र महर्षि और ब्रह्मर्षि के इस झगड़ने का निर्णय देने में असमर्थ रहे यानी इन्द्र ने विश्वामित्र और वशिष्ठ जी से दोनों हाथ जोड़ते हुये स्पष्टतः जवाब दे दिये कि यह फैसला मेरे वश का नहीं है, आप लोग ब्रह्मा जी के पास जाये, वही इसका सही-सही निर्णय बतायेंगे । दोनों-महर्षि ओैर ब्रह्मर्षि  सृष्टि उत्पत्ति कत्र्ता ब्रह्मा जी के पास गये और दोनों ही अपनी बात ब्रह्मा जी के समक्ष रखते हुये कहा कि-महानुभाव ! दस हजार वर्ष का तपस्या का फल बड़ा है या एक क्षण का सत्संग फल ? महर्षि विश्वामित्र और ब्रह्मर्षि वशिष्ठ दोनों की बातें सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा कि यह निर्णय हमारे वश या मान का नहीं । आप सहस्र मुख रखने वाले शेषनाग के पास जाइए, इसका फैसला ठीक-ठीक वही बतायेंगे । विश्वामित्र जी और वशिष्ठ जी दोनों ही शेषनाग जी के यहाँ गये और शेषनाग से दोनों ही अपनी-अपनी बातों को कहे। शेषनाग जी बड़े ही गौर से दोनों महर्षि और ब्रह्मर्षि के बातों को सुने । सुनने के पश्चात् विश्वामित्र जी से कहे कि आप बहुत तपस्वी हैं, अपने दस हजार वर्ष के तपस्या के बल से इस मेरे सिर पर से पृथ्वी को अपने सिर या हाथ पर तब तक रोके रहिये, जब तक कि हम आप लोगों के बीच निर्णय न सुना दें । महर्षि विश्वामित्र जी ने पृथ्वी का भार सहन करने में अपनी असमर्थता जाहिर की कि इस पृथ्वी का भार सहन करना मेरे वश की बात नहीं है, तत्पश्चात् शेषनाग जी ने वशिष्ट जी से कहा कि आप अपने सत्संग फल की क्षमता से तब तक पृथ्वी को धारण किये रहिये, जब तक कि निर्णय न करके सुना दें । ब्रह्मर्षि वशिष्ट जी ने कहा ठीक है और वशिष्ठ जी ने भगवान् की पुकार की और कहे कि यदि एक क्षण के सत्संग में यदि क्षमता हो तो पृथ्वी अवश्य हमारे हाथ पर रुकी रहे । पृथ्वी ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी लिये रहे, थोड़ी ही देर बाद शेषनाग जी ने कहा कि आप लोग जाइए, फैसला हो गया, निर्णय कर दिया गया। दोनों ही आदमी महर्षि जी और ब्रह्मर्षि जी ने सोचा कि कुछ निर्णय दिये ही नहीं, और न हीें तो कह रहे हैं कि जाइए निर्णय कर दिया; क्या निर्णय हुआ भाई ? शेषनाग जी क्या कह रहे हैं । यह कहे थे कि पृथ्वी को धारण किये रहिये, जब तक कि हम फैसला न कर-करा दें और बिना कुछ भी फैसला किये-कराये ही पृथ्वी को पुनः वापस लेकर धारण करते हुये कह रहेे हैं कि निर्णय हो गया, तो आखिर निर्णय क्या हुआ ? इस पर सहस्र मुख वाले शेषनाग जी ने अपने निर्णय को स्पष्ट करते हुये कहा कि- दस हजार बरस के तपस्या में भी यह क्षमता नहीं है कि पृथ्वी का भार वहन या धारण कर सके, मगर क्षण भर का सत्संग का फल सुगमता पूर्वक बिना किसी हिचक-परेशानी के ही पृथ्वी का भार वहन या धारण कर लिया, यही मेरा निर्णय रहा कि ये सत्संग फल हर स्तर पर श्रेष्ठ है । दस हजार वर्ष के तपस्या में भी जो क्षमता शक्ति नहीं आती है, वह क्षण भर के सत्संग से प्राप्त हो जाती है । इस प्रकार यह प्रत्यक्षतः दिखायी देने वाले निर्णय से महर्षि और ब्रह्मर्षि दोनों ही काफी प्रसन्नता जाहिर की तथा निर्णय को धन्य-धन्य कहा ।
सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! सत्संग की महिमा के सम्बन्ध में यही बात है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ही सत्संग की उपमा के योग्य कुछ भी है ही नहीं । ठीक ही कहा गया है कि 
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिय तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुखलव सत्संग ।।
     हे तात् ! यदि स्वर्ग ओर अपवर्ग यानी अमर लोक के सुखों को तराजू के एक पलड़े पर तथा सत्संग के क्षण भर के सुख को दूसरे पलड़े पर रखा जाय तो निःसन्देह निश्चित ही सभी सुख मिल कर भी क्षण भर के सत्संग-सुख की बराबरी नहीं कर सकते, क्षण भर का सत्संग-सुख भी निश्चित ही भारी हो जायेगा- सत्संग सुख अनूपम है । सत्संग की महिमा को न तो गा-कहकर पूरा किया जा सकता है और न लिखकर ही, क्योंकि सत्संग का सीधा अर्थ भी यही है कि- सत्य का संग । अब रही बात कि सत्य क्या है ? तो गहन अध्ययन, मनन-चिन्तन, योग-साधना-अध्यात्म तथा तत्त्वज्ञान आदि सम्पूर्ण का श्रद्धा-विश्वास निष्ठापूर्वक जानकारी प्राप्त करने पर पता चलेगा कि सत्य एक मात्र वह ही है जो सदा-सर्वदा-सर्वथा ही एकरुप हो, अपरिवर्तन शील हो, मुक्त और अमर हो, नाम-रुप रहित-सहित दोनों तथा दोनों से ही परे भी हो, वह ही सत्य है । सत्य के इस परिभाषा के अन्तर्गत एकमात्र भगवान्-खुदा-गाॅड ही हैं, अन्यथा कोई ही और कुछ भी ऐसा नहीं जो परिवर्तनशील और विनाशशील न हो; एक रुप-अपरिवर्तनशील-मुक्त- अमर भगवान् ही होते हैं । भगवान् का ही यथार्थतः ज्ञान-रुप भगवद् ज्ञान या तत्त्वज्ञान या सत्य ज्ञान प्राप्त तथा सर्वतोभावेन भगवत् समर्पित भगवद् शरणागत ज्ञान-वैराग्य वाला वेपरवाह-निरपेक्ष सत्पुरुष ही सन्त होता है, अन्यथा कोई नहीं, कोई नहीं । सन्त और सत्संग दोनों ही संसार क्या अखिल ब्रह्माण्ड में ही अतुलनीय है क्योंकि सन्त सृष्टि के उत्पत्ति-संचालन-संहार का सर्वोच्च, सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वोत्तम सर्व सत्ता-शक्ति- सामथ्र्य युक्त भगवान्-खुदा-गाॅड का ही अभिन्न रुप होता-रहता हुआ भगवद् लक्ष्य कार्य का ही सम्पादन करता रहता है । यही कारण है कि सन्त भगवान् का परमप्रिय, परम सेवक, परम भक्त, एवं परम प्रेम पात्र रूप ही होते हैं जिनकी महिमा का गान कर-कर के भगवदावतारी भी लोक-वेद में सन्त की महिमा को स्थापित एवं मर्यादित बनाते-करते रहते हैं । भगवदावतार अपने परमप्रिय सन्तों को सदा ही वर्णनीय बताकर अपने सरल-सुहृदय एवं परम उद्धार भाव को ही स्थापित करते हैं । यही कारण है कि श्री राम जी ने तथा श्री कृष्ण जी ने सन्तों की महिमा को श्री मुख से गा-गा कर समाज में सन्त-समागम की महत्ता को कायम किया है तथा अपने आगे सन्त को रखा है।
   चै0       प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा । 
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।
    दोहा गिरिजा संत समागम सम न लाभ  कछु आन ।
                  बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान ।।
सत्संगति महिमा नहिं गोई । 
यह जनि अचरज मानहिं कोई ।।