सन्त ज्ञानेश्वर का सत्संग ज्ञान प्रधान

सन्त ज्ञानेश्वर का सत्संग ज्ञान प्रधान
  
      सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बन्धुओं ! सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द का सत्संग जब कभी भी होगा, जहाँ कहीं भी होगा, ज्ञान प्रधान ही होता है । भगवद् ज्ञान रूप तत्त्वज्ञान रूप सत्य ज्ञान मात्र ही सन्त ज्ञानेश्वर का आधार और लक्ष्य दोनों ही है । यही कारण है कि ये तत्त्वज्ञान की ही चर्चा अधिकतर बराबर ही करते-रहते हैं । यहाँ पर अब आप बन्धुओं को श्री राम चरित मानस के कुछ प्रमुख दोहा-चैपाई को आप के समक्ष रखते हुये यह दर्शाया जायेगा कि- वास्तव में श्री राम चरित मानस का अर्थ-भाव कोैन जान-समझ सकता है ? आज के सभी रामायणी जन जिनमें से कोई मानस मर्मज्ञ की उपाधि वाला है, तो कोई मानस कोकिल, कोई मानस के महत्व-गरिमा को समझाने के लिए चार-चार हजार रुपया रोज तक ले रहा है । कोई श्री राम चरित मानस का ज्ञाता बन रहा है, तो कोई व्याख्याता । मगर मुझ सन्त ज्ञानेश्वर का उन बन्धुओं से पूछना है कि ठगहाई, लूट-पाट करने के लिये धर्म और धर्म-ग्रन्थ को माध्यम बनाना जरुरी है । अरे धर्म विरोधियों ! अपने प्रति क्यों नही सोचते कि आप क्या कर रहे हो, आप को इसका कुछ परिणाम भी भुगतना पड.ेगा या नहीं ! धर्म और धर्मग्रन्थों को लूट-पाट और ठगहाई का माध्यम क्यों बना रहे हों ? भोले-भाले धर्म प्रेमी, भगवद् प्रेमी भगवद् जिज्ञासु को क्यों ठग रहे हो ? क्यों भरम में डाल रहे हो ? जरा सोचो तो सही कि आप को धर्म एवं धर्मग्रन्थों के सम्बन्ध में रत्ती भर भी जानकारी है ? जरा अपने दिल और दिमाग को टटोलो तो कि आप सद्ग्रन्थों के आशय को जान-समझ पाये हों ? आप धर्मोंपदेश देने तो चल दिये, मगर धर्म को जानने समझाने की कभी भी थोड़ा भी कोशिश किये हो ? परमात्मा को तो नहीं जाने, मगर क्या जीव को भी जानने की कोशिश किये ! जो अध्यात्म और तत्त्वज्ञान को आशय और रहस्य के साथ नहीं जान लेता, वह रामायण, गीता, पुराण या वेदान्त या बाइबिल, र्कुआन को क्या जानेगा ? नहीं जान सकता, नहीं समझ सकता है । श्री राम चरित मानस के चैपाइयों, दोहों, छन्दों, सोरठों आदि को लय से पढ. लेना एक अलग बात है, उसका आपस में अर्थ कह-सुन लेना भी एक अलग बात ही है, मगर श्री राम चरित मानस का आशय-रहस्य समझना एक विचित्र ओैर अलग ही बात है । आशय और रहस्य ज्ञान प्राप्ति के बगैर कदापि समझ में नहीे आ सकता । कोई सद्ग्रन्थ लच्छेदार अथवा रो-गाकर नाटकीय दृश्य प्रदर्शित करके पैसा वसूलने की चीज नहीं है, बल्कि सुनते और समझते हुये उसी के अनुसार जीवन को करते हुये उसी के अनुसार रहने-चलने-करने की बात है । जब तक अच्छी प्रकार से जानते-समझते-रहते-चलते-करते नहीं रहेंगे तब तक आप किसी भी सद्ग्रन्थ का आशय और रहस्यों का आनन्द नहीं ले पायेंगे । आप बन्धुओं के समक्ष मुझ सन्त ज्ञानेश्वर द्वारा दो-चार दोहा-चैपाइयों की व्याख्या की दी जा रही है, इसे जानने-समझने का प्रयत्न करें । आप बहुत व्याख्या सुने होंगे, दो शब्द यह भी सुुन लें।
      तुलसी कृत श्री रामचरित मानस सेः- सद्भावी सत्यान्वेषी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! यह सन्त ज्ञानेश्वर द्वारा जो व्याख्या होगा, वह भगवत् कृपा विशेष से ही होगा, अन्यथा सदानन्द तो कुछ जानता नहीं, न तो अंग्रेजी जानता है और न तो उर्दू, न तो अरबी जानता है और न तो फारसी, न तो फ्रेंच जानता है और न लेटिन, न तो यह चीनी जानता है, न तो नेपाली, न तो जर्मन जानता है और न तो रसियन, न तो अमेरिकन जानता है और न तो अफ्रीकन, न तो कनाडियन जानता है और न तो आस्ट्रेलियन, न तो बर्मी जानता है और न तो जापानी, न तो तमिल जानता है और न तो तेलगू, न तो उडि़या जानता है और न तो कन्नड़, न तो बंगला जानता है, न संथाली, न तो पंजाबी जानता और न तो गुजराती, न तो मराठी जानता है न तो अवधी, न तो मैथिल जानता है और न तो भोजपुरी, इतना ही नहीं सदानन्द संस्कृत और शुद्ध हिन्दी तक तो जानता ही नहीं, मगर हाँ भगवत् कृपा विशेष से चाहे जहाँ का भी हो, जो भी हो, यदि वह मानव है तो सन्त ज्ञानेश्वर उसे आसानी से उचित समय के अन्दर भगवद्ज्ञान रूप तत्त्वज्ञान रुप सत्यज्ञान को अवश्य ही समझा-बुझा-बोधित करा करके उचित रूप में भगवत् सेवार्थ परमार्थ हेतु भगवत् शरणागत करा लेगा । खैर जो भी हो यहाँ पर सन्त ज्ञानेश्वर को मात्र यही बता देना है कि आप मात्र भाषा-शैली नहीं देखेंगे बल्कि भाव और संकेत पकड.ने का कोशिश कीजियेगा कि वास्तव में सन्त ज्ञानेश्वर कहना क्या चाहता है, आप उसे ही पकड.ने जानने-समझने और सत्यतः और यथार्थतः होने पर जीवन को उसी पर रखने, उसी के अनुसार ले चलने उसी के अनुसार करने में सर्वतोभावेन लगा देना चाहिये । वास्तव में आप इस सद्ग्रन्थ के इस प्रकरण का सही-सही आनन्द ले सकेंगे । प्राप्त कर सकेंगे । इसके भाव और संकेत को ही पकड.ने समझने का प्रयत्न करेंगे । अच्छा तो अब आप दोहा चैपाइयों के माध्यम से ही रहस्य समझें-
बंदउँ गुरु पद कन्ज कृपा सिंधु नररुप हरि ।
महा मोह तम पुंज जासु वचन रबि कर निकर ।।
       व्याख्याः- श्री गुरु महाराज के चरण कमल की वन्दना करता हूँ । पहले चरण का तो मेरे समझ से यही अर्थ हुआ । अब यहाँ पर बात यह देखना है कि किस गुरु महाराज के । गुरु तो आज गली-गली में घूमते फिर रहे हैं क्या उन्हीं गुरु महाराज के जो कि कान में फूँक दिये । कोई रां रामाय नमः, कृं कृष्णाय नमः, हं हनुमते नमः,  भूःभूवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गों देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्,  श्री विष्णवे नमः, ॐ नमः शिवाय, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय आदि आदि मन्त्रों को कान फूंक देने वाले गुरुओं को या मीन मांसाहारी असुर राक्षस गुरुओं को, या कुछ भी न जानते हुये अन्य पारिवारिक जीवन में ही रसे-बसे भैंसे के तरह से रमण करने वाले गुरुओं को, शूकर-कूकर की तरह उदर और विषय सेवन में ही रात-दिन रहने वाले गुरुओं को या  धन-लोलुप-धनाभिलाषी गुरुओं को, मिथ्यावादी और मिथ्याचारी गुरुओं को या मिथ्याज्ञानाभिमानी और मिथ्याहंकारी गुरुओं को, नहीं नहीं, नहीं, ऐसे गुरुओं को यह नहीं कहा गया है । यह तो उस गुरु महाराज जी केे लिये है ‘जो कृपा के सिन्धु हों ।’ बन्धुओं ! यहाँ पर थोड़ा ध्यान देने की बात है कि हम श्री गुरु महाराज जी के कमलवत् चरणों की वन्दना करते हैं, मगर किस गुरु महाराज के, तो उस श्री गुरु महाराज जी के जो कि कृपा के सिन्धु हो । तो बन्धुओं सिन्धु हों सिन्धु कहने का अर्थ क्या था ? यानी अथाह हो, जिनके कृपा का थाह नहीं । जिनकी कृपा में समाप्ति की तो कल्पना ही नहीं, कभी भी न होती हो, सदा ही समुद्र के समान ही एक रूप रहता हो । तो बन्धुओं ! यहाॅं पर यह बात भी उठ सकता है कि गुरुदेव कृपा के सिन्धु, दया के सागर है या नहीं; यह पता कैसे चले ? तब इसके जवाब में अगला चरण आया कि- ‘वे नर रुप साक्षात् हरि ही हो अथवा नर रुप में साक्षात् परमप्रभु रुप भगवान् ही हों ।’ जब नर रूप में साक्षात् हरि या भगवान् ही होंगे, तब ही वह कृपा के सिन्धु दया के सागर हो सकते हैं और तब जाकर ही वह श्री गुरु महाराज जी होंगे, जिनके वन्दना की बात की गयी है, जिनके वन्दना की बात कही गयी है । अब तो और ही जटिल प्रश्न हो गया कि नर रुप में साक्षात् हरि या भगवान् आये हों, तो उनका पहचान किस प्रकार होगा ? कैसे जाना-पहचाना जायेगा । भगवान् जब नर रूप में ही होंगे तो उस नर रूपधारी भगवान् का ठीक-ठीक पहचान क्या होगा जिससे कि वे पहचाने जा सकें ? तत्पश्चात् इस प्रश्न के जवाब में श्री तुलसीदास जी ने लिखा कि- महा मोह तम पुंज ‘तम’ का अर्थ अन्धकार है। मोह की तुलना अन्धकार या रात्रि से किया जाता है जैसे कि ‘मोह निशा सब सोवनि हारा ।’ अर्थात् मोह ही रात्रि के अन्धेरा के समान माना गया है । बन्धुओं ! अन्धकार के लिये मोह शब्द ही काफी है मगर मोह के पहले एक शब्द और ही आया है कि महा मोह यानी मात्र मोह ही नहीं महा मोह रूपी महा अन्धकार, महारात्रि का संकेतक (संकेत कराने वाला) यह दोहरा शब्द है कि महा मोह तम अर्थात् महा मोह रूपी अन्धेरा । अभी इतना पर भी तुलसी दास जी को सन्तोष नहीं हो रहा है। बन्धुओं ! यहाँ पर पुनःथोड़ा मनन-चिन्तन की आवश्यकता है कि एक मोह ही इतना जबर्दस्त अन्धकार का सूचक है कि जीव को आत्मा और परमात्मा; ब्रह्म और परमब्रह्म; ईश्वर और परमेश्वर; शिव और भगवान् को भी भुलाकर संसार माया में ही भटका दिया है, जिसको कि अपना मूल रूप भगवान् तक की आवश्यकता नहीं पड.ती है जीव और आत्मा-परमात्मा के मध्य यदि कोई अड.चन-परदा-बाधा है तो मोह का ही है, मोह के सहारे ही अहंकार कायम रहता है, मोह खतम कि अहंकार खतम, मोह समाप्त होते ही अहंकार भी समाप्त हो जाता है तो यहाॅंँ देखेें कि एक मोह ही है जो सभी जीवों को भगवान् से भटका-विचिला कर, भरमाकर जड.-संसार रूपी माया-ममता में जकड. देता है जिससे छुटकारा पाना जीव के वश की बात ही नहीं रह जाती । अब तो बात सिर्फ मोह की नहीं, बल्कि यहाँ बात तो महा मोह की है । मोह की जब यह हाल है तो महा-मोह का क्या होगा, जरा सोच लें और मात्र महामोह ही नहीं है, महामोह-तम पुंज अर्थात् महामोह रुपी अन्धकार का भी रात्रि समूह पुंज हो ।
      सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! महा मोह तम पुंज को इस उदाहरण से समझे कि रात्रि तो सभी ही रात्रि ही है, उसी में एक रात्रि कार्तिक की पूर्णिमा और एक कार्तिक या अन्य रात्रियों में अमावस्या की रात्रि भी एक रात्रि ही है, दोनों में कितना अन्तर है जरा याद तो करें । कार्तिक या किसी भी अन्य रात्रि की पूर्णिमा और अमावस्या में कितना अन्तर होता है तो समझ लें कि मोह यदि पूर्णिमा की रात्रि है है तो महा मोह अमावस्या की रात्रि समझें । घनघोर घटा से घिरा आसमान वाला भादो के अमावस्या की रात्रि को महामोह तम पुुंज समझें। मगर सूर्य किरण के लिये सब ही समान है । उसके लिये न तो पूर्णिमा की रात्रि के लिये कोई सुविधा की बात है और न ही भादो के घनघोर घटा से युक्त आसमान वाली अमावस्या की रात्रि के लिये कोई परेशानी की बात ही । सूर्योदय होते ही चाहे जैसी भी रात्रि होती है, सूर्य किरण वह समाप्त हो ही जाती है, ठीक ऐसे ही जैसे कि सूर्य अपनी किरणों से रात्रि के अन्धकार-महाअन्धकार समूह को भी समाप्त कर देती है, ठीक उसी प्रकार से जिसके वचन मोह क्या, महा मोह रूपी अन्धकार समूह को भी उसी सूर्य किरण के समान ही समाप्त कर देता हो, वास्तव में वह नर रूप में साक्षात् भगवान् ही होगा, जो कृपा का सिन्धु-दया का सागर होगा, वही गुरुदेव होगा, जिसके कि कमलवत् चरणों की वन्दना करता हॅूंँ । यह है सच्चे गुरु की पहचान । गुरु के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा बताया था जो अपने आप में एक बड़े ही महत्वपूर्ण बात है और यहाॅं पर वैसे ही गुरुदेव की चर्चा हो रही है, इसलिये और ही साफ साफ जानकारी समझदारी के लिये उस प्रकरण को यहाँ आप के समक्ष रख देना चाहूँगा ताकि आप भी थोड़ा सुन-समझ कर लाभान्वित हो सकें । यह प्रकरण श्री रामकृष्ण वचनामृत- भाग तीन पृष्ठ संख्या छः सौ इकतीस से उद्धृत:- परमेश्वर ही अवतार के रूप में हमारे पास आते हैं । यदि हम भगवद्-दर्शन करना चाहें तो अवतारी पुरुषों में ही उनका दर्शन करना होगा । उनका पूजन किये बिना हम रह नहीं सकते । 
     ‘‘ . .  साधारण गुरुओं से श्रेष्ठ एक और श्रेणी के गुरु होते हैं जो इस संसार में परमेश्वर के अवतार होते हैं । केवल स्पर्श से ही वे आध्यात्मिकता प्रदान कर सकते हैं, यहाॅं तक कि इच्छा मात्र से ही । उनकी इच्छा से महान दुराचारी तथा पतित व्यक्ति भी क्षण भर में ही साधु हो जाता है, वे गुरुओं के भी गुरु है तथा मनुष्य रूप में भगवान् के अवतार हैं । उनके माध्यम बिना हम परमेश्वर का दर्शन नहीं कर सकते । उनकी उपासना किये बिना हम रह ही नहीं सकते और वास्तव में केवल वे ही ऐसे हें, जिनकी हमें उपासना करनी चाहिये ।   .   .   .   जब तक हमारा यह मनुष्य शरीर है, तब तक हमें परमेश्वर की उपासना मनुष्य के रूप में और मनुष्य के सदृश ही करनी पड़ती है । तुम चाहे जितनी बातें करो, चाहे जितना यत्न करो, परन्तु भगवान् को मनुष्य शरीर के अतिरिक्त तुम किसी अन्य रूप में सोच ही नहीं सकते । 
 नोटः- ईश्वर के स्थान पर सन्त ज्ञानेश्वर द्वारा परमेश्वर प्रतिस्थापित ।
         सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! जहाँ तक गुरु पहचान की बात है तो इसे तो तुलसी दास जी और विवेकानन्द जी के द्वारा दी गयी जानकारियों को देखा गया । इस प्रकार गुरुदेव के इस प्रकरण का अर्थ यह नहीं लगा लेना चाहिये कि जो भी गुरु बन जा रहे हैं, वही भगवान् के साक्षात् अवतार हैं, ऐसी बात नहीं होती । यहाँ पर जो बात बतायी जा रही है, उसका भाव यह है कि वास्तव में भगवान् को एक मात्र भगवान् ही जना सकता है; पुनः भगवान् को जनाने-दिखाने वाला खुद भगवान् का ही साक्षात् अवतार रुप सद्गुरु जिसे कि यहाँ गुरुदेव कहा गया है, ही होता है । भगवान् के अवतार रुप सद्गुरु की सच्ची पहचान एक मात्र यही है कि वे शिक्षा-विचार या स्वाध्याय-अध्यात्म और तत्त्वज्ञान, चारों को ही पृथक-पृथक जनाते-बताते हुये शरीर जीव-आत्मा और परमात्मा को भी तत्त्वज्ञान पद्धति से ही पृथक-पृथक जनाता-दिखाता हुआ अद्वैत्तत्त्व बोध के साथ ही मुक्ति और अमरता का बोध कराते हुये बात-चीत करते-कराते हुये परिचय और पहचान भी कर-करा देता है । सबसे बड़ी और प्रमुख विशेषता तो यह है कि वह ‘आत्मतत्त्वम्’ शब्दरूप परम भाव-प्रभाव वाले परमब्रह्म से ही सम्पूर्ण सृष्टि के ही जीव, जीवात्मा, आत्मा, परमात्मा; अहं, सोऽहँ-हँस, परमतत्त्व वाले सम्पूर्ण मैं-मैं, तू-तू को प्रकट या उत्पन्न करते-कराते हुये तत्पश्चात् अन्ततः सभी को ही उसी एकमात्र अपने मूल तत्त्वरूप आत्मतत्त्वम् में ही विलय रूप रहस्य के साथ ही गीता विश्वविराट रूप का साक्षात्कार तथा बोध भी करा दे वास्तव में वही सच्चा गुरु-सद्गुरु है, परमगति-परमपद मुक्ति और अमरता का बोध ज्ञान प्राप्ति के साथ स्पष्टतः करा दे वास्तव में वही सच्चा गुरु-सद्गुरु रूप में भगवदावतार है, शेष कर्म काण्डी और आध्यात्मिक गुरु भगवदावतार नहीं होते हैं, ये आध्यात्मिक महात्मा, ऋषि, महर्षि-ब्रह्मर्षि, प्राफेट, पैगम्बर होते हैं । जो न तो ॐ और मूर्ति ही भगवान् है और न तो कोई सद्ग्रन्थ ही; पुनः न तो आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव-सोल-नूर ही भगवान् होते हैं और न ही सोऽहँ-हँस-ज्योति ही भगवान् होते हैं और न तो सोऽहँ-हँस-ज्योति वाले ही भगवदावतार होते हैं, भगवान् तो एकमात्र ‘आत्मतत्त्वम्’ शब्द रूप परम भाव-प्रभाव वाला परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म-गाॅड-अल्लातऽला भगवान् है तथा उसी एकमात्र आत्मतत्त्वम् वाला शरीर ही भगवदावतारी होता है जिसके प्रत्येक कार्य ही गूढ. आशय और गहन रहस्यों से भरपूर होते हैं जो लीला कहलाता है, इसी सद्गुरु के कमलवत् चरण की वन्दना करने की बातें की गई है ।
       सद्भावी सत्यान्वेषी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! अब तक तो बन्दउॅं  .  .  .  ..रवि कर निकर ।।’ के सम्बन्ध में देखे-सुनाये-सुने गये । अब हम श्रीराम चरित मानस की ही पाँचवी चैपाई को यहाँ पर आपके समक्ष रखूँगा तथा पूर्णतः आश्वस्त रहूँगा कि आप सुनने के साथ ही साथ समझने का भी प्रयास निश्चित ही कर रहे होंगे । व्याख्या यदि विस्तार से भी थोड़ी लगती हो, तो उसका लक्ष्य आप को यथार्थतः समझाना ही है-
श्री गुरु पद नख मनि गन जोती ।
 सुमिरत दिव्य दृष्टि हियँ होती ।।
        व्याख्याः- श्री गुरु महाराज जी के मणि समूह के ज्योति के समान ज्योति वाले पैर के नाखून की ज्योति के सुमिरण मात्र से ही हृदय के अन्दर दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है । यहाँ पर श्री गुरु महाराज जी के पैर के नाखून की ज्योति को सुमिरण करने मात्र से ही हृदय के अन्दर दिव्य दृष्टि उत्पन्न होने की बात कही गयी है तो बड़े बन्धुओं आध्यात्मिक महात्मागण इस ज्योति को ही भगवान् तथा इस दिव्य दृष्टि को ही ज्ञान दृष्टि मानकर स्वयं तो भ्रम एवं भूल में है ही जनमानस में भी भ्रम उत्पन्न कर भूल में डाल दे रहे हैं । यह बात भी सही ही है कि तुलसीदास जी भी सोऽहँ और ज्योति वाले ही थे, मगर साथ ही साथ यह भी सत्य ही है कि स्वयं भगवदावतार नहीं बने बल्कि भगवदावतार के रूप में श्री रामचन्द्र जी को स्वीकार किया जो कि यथार्थतः सत्य है । मगर आज के सोऽहँ और ज्योति वाले तो प्रायः सभी आध्यात्मिक महात्मा ही खुद को भगवदावतार घोषित करने-कराने में मशगूल हैं । सोऽहँ-ज्योति वाला यदि मिथ्याज्ञानाभिमान एवं मिथ्याहंकार छोड.कर वास्तव में नहीं वर्तमान तो पूर्व के भगवदावतार के शरणागत भाव होता हुआ भगवद् भक्ति हेतु समर्पित हो जाता है, तो उसे भी भगवद् कृपा दृष्टि लीला कार्य समझने हेतु उसके भक्ति स्तर तक ही अवश्य ही प्राप्त हो जाया करती है । उसी भगवत् कृपा दृष्टि का परिणाम है कि तुलसी जी ने स्पष्टतः यह कृति रचकर भगवद्-भक्तों में अपना नाम दाखिल कर-करा लिया । हाँ, तो आइए यहाँ-सोऽहँ व ज्योति वाले आध्यात्मिक महात्मागण ह ्ँसो व ज्योति ही अपना रूप बताते हैं और कहते हैं कि सोऽहँ वही मैं हूँ-ज्योति ही मैं हूँ । यदि उनकी यह बात ही मान ली जाय कि वे ज्योति रूप ही हैं, परन्तु वह ज्योति यहाॅंँ पर पैर के नाखून की ज्योति ही मानी जा रही है क्योंकि भगवान् के पैर के नाखून से निकली ज्योति ही आध्यात्मिकों का अपना ज्योति रूप है । भगवान् से छिटकी आत्म ज्योति ही आत्मा है, भगवान् से छिटकी ब्रह्म ज्योति ही ब्रह्म है, भगवान् से छिटकी दिव्य ज्योति ही ईश्वर है, भगवान् से ही छिटकी स्वयं ज्योति ही शिव है, भगवान् या गाॅड से छिटकी ज्योति ही यीशु वाला डिवाईन लाईट या जीवन ज्योति है, भगवान् या अल्लातऽला से छिटकी स्वयं ज्योति या आसमानी रोशनी या आलिमें नूर ही नूर है मूसा ने उसी ज्योति का पाया था, यीशु अपने को वही ज्योति बताये थे, मुहम्मद साहब ने मिराज में उसी ज्योति को देखा था आदि से आज तक के प्रायः सभी योगी-यति-साधक ऋषि-महर्षि गण, प्राफेट-पैगम्बर तथा आध्यात्मिक महात्मागण उसी सोऽहँ-ज्योति-ह ्ँसो ज्योति वाले थे- ज्योति है, शंकर भी ज्योति वाले ही थे । परन्तु श्री विष्णु-राम-कृष्ण ज्योति के उत्पत्ति-अन्त रूप आत्मतत्त्वम् वाले थे ।
        सद्भावी भगवद् जिज्ञासु बन्धुओं ! भगवान् के साक्षात् अवतार रूप सद्गुरु के पैर के नाखून से मणि समूह के ज्योति के समान ही स्वयं ज्योति का जो जन सुमिरण करता है तो उसके हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है । चूँकि ज्योति के साक्षात्कार करने का विधान दिव्य दृष्टि या आत्मदृष्टि से ही है । दिव्य दृष्टि के बगैर आत्म ज्योति रूप आत्मा या दिव्य ज्योति रूप ईश्वर या ब्रह्म ज्योति रूप ब्रह्म का साक्षात्कार हो ही नहीं सकता है, मगर यह विधान भगवदावतार पर लागू नहीं होता है क्योंकि अनन्य भगवद् भाव वालों को ऐसे भी इन स्थूल आँखें से भी दिव्य ज्योति रूप ब्रह्म ज्योति सहज ही बिना साधना ध्यान के ही दिखाई देने लगता है । अतः भगवान् तथा अनन्य भगवद् भाव वाले सृष्टि के प्रत्येक विधान के ही अपवाद होते हैं। हाँ, तो जो आध्यात्मिक महात्मा-महापुरुषों का अपना ज्योति रूप है वह भगवदावतार के नाखून से निकली छिटकी ज्योति ही है जिसको सुमिरण करने वाले को दिव्य दृष्टि की 
उपलब्धि हो जाती है, तत्पश्चात् क्या होता है-
दलन मोह तम सो सप्रकाशू ।बड़े भाग्य उर आव जासू ।।
      व्याख्याः- (श्री गुरु महाराज जी के पैर के नाखून के सुमिरण से हृदय में जब दिव्य-दृष्टि उत्पन्न हो जाती है तब) उस ज्योति का दिव्य दृष्टि से साक्षात्कार होते ही उस ज्योति से मोह रूप अन्धेरे का नाश-दलन हो जाता । मगर यह बात भी याद रखने की है कि वह दिव्य दृष्टि और दिव्य ज्योति भी बड़े ही भाग्य से ही हृदय में आती है । पहले तो मनुष्य शरीर ही दुर्लभ शरीर कही गयी है । खुद भगवान् के ही साक्षात् अवतार रूप श्री रामचन्द्र जी ने ही अपने प्रजा को उपदेश देते समय भी कहे थे कि- ‘बड़े भाग्य मानुष तन पावा । सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थह गावा ।।’ यानी सर्वप्रथम तो मनुष्य की शरीर प्राप्त करना ही बड़े ही भाग्य की बात है जिसके लिये कि देवगण भी सदा ही लालायित रहते हैं, मगर उनके लिये भी यह दुर्लभ ही रहता है, उस मनुष्य शरीर को पाकर साथ ही साथ यदि दिव्य-दृष्टि और आत्म ज्योति या दिव्य ज्योति का हृदय में आ जाना तो और ही भाग्य की बात है क्योंकि ऐसा देखा जाता है कि परिवार-संसार में फँस-फँसकर मानव अपने स्वरूप रूप जीव को भी प्रायः कुछ एक प्रतिशत छोड. कर सब ही जनम-करम-भोग-मरण; पुनः जनम-करम-भोग-मरण पुनः जनम-करम-भोग-मरण आदि में ही लगा रहता है; जुटाना-खाना-पखाना; पुनः जुटाना-खाना-पखाना; पुनः जुटाना-खाना-पखाना में ही परेशान-कष्ट पाते हुये, आहार-निद्रा-भय-मैथुन; आहार-निद्रा-भय-मैथुन, आहार-निद्रा-भय-मैथुन को ही अपनी उपलब्धि मान कर उसी में रसे-बसे, लगे-बझे रहते हुये विनाश को प्राप्त हो जाया करते हैं- नाम-रूप दानों ही जड. शरीर का ही या उसी जड. शरीर में ही लगे-बझे रहे, इसलिये शरीर के समान ही थोड़ा आगे-पीछे रूप-नाम भी विनष्ट हो जाता है, ऐसे में यदि किसी के हृदय में दिव्य ज्योति-दिव्य दृष्टि हो जाय तो भाग्य ही है ।
        सद्भावी भगवद् जिज्ञासु बन्धुओं ! अस्सी पञ्च मन्दिर विराट सत्संग एवं शंका-समाधान समारोह के अन्तर्गत सत्संग सुनाते हुये सन्त ज्ञानेश्वर ने आगे बताया कि बन्धुओं ! (जब गुरु महाराज जी के पैर के नाखून के मणिगण के ज्योति के समान ही स्वयं ज्योति रूप का जब सुमिरण किया जाता है, तब हृदय के अन्दर दिव्य दृष्टि उत्पन्न होती है जिससे कि उस दिव्य ज्योति का साक्षात्कार होता हैै और जब दिव्य ज्योति का दिव्य दृष्टि द्वारा साक्षात्कार हो जाता है, तब उस दिव्य ज्योति से मोह रूपी अंधेरे का नाश हो जाता है, मगर वह दिव्य दृष्टि और दिव्य ज्योति प्रायः सभी को ही नहीं मिल पाती है, जो बड़े भाग्यशाली होते हैं, उन्हीं को ही मात्र मिल पाती है । छुद्र जन तो भाग्य वश मिल जाने पर महत्व नहीं देते और कुछ ही समय पश्चात् लुप्त हो जाया करती है । मगर जो इस दिव्य ज्योति और दिव्य दृष्टि पाने के पश्चात् भी भक्ति-भाव के खोज और भक्ति में लगे रहते हैं, तब)- 
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के । 
मिटहिं दोष दुःख भव रजनी के ।।
      व्याख्याः- (तब) हृदय स्थित पवित्र विशेष दृष्टि खुल-उघर जाती है और जब विशेष पवित्र दृष्टि खुल जाती है, उघर जाती है, तब भवसागर के दोष-दुःख रूपी रात्रि-अंधेरा की समाप्ति हो जाती है, मिल जाती है। अब यहाॅंँ पर बड़े ही गौर करने की बात है, ऊपर दिव्य दृष्टि की और दिव्य ज्योति की बात चैपाई में कही गयी जिससे मोह रूपी अधेरे का नाश बताया गया है, मगर यहाँ पर विशेष पवित्र दृष्टि की बात कही गयी है जो स्पष्टतः ज्ञानदृष्टि के तरफ संकेत करता है- पहले तो लोचन का अर्थ ही आँख होता है, दृष्टि होता है और विलोचन से तात्पर्य विशेष दृष्टि से होता है, परन्तु विमल शब्द भी जब आ गया है तो वास्तव में विमल विलोचन का स्पष्टतः संकेत ज्ञानदृष्टि-ज्ञानचक्षु के तरफ ही होता है, क्योंकि दिव्य दृष्टि भी विमल नहीं होती है, बिमल यानी पवित्र तो एक मात्र ज्ञान दृष्टि ही होती है । गीता अध्याय चार श्लोक    अड.तीस के पूर्वार्ध श्लोक में श्री कृष्ण जी ने श्री मुख से ही कहा था कि-‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।’ यानी ज्ञान के समान पवित्र यहाँ (संसार में) कुछ भी नहीं है, ऐसा जानने में कोई पवित्र चीज नहीं है । दूसरी बात यह है कि ज्ञान के बगैर जीव का अत्यन्तिक दोष-दुःख रुपी अंधेरा मिट ही नहीं सकता है । दोष-दुःख रुपी भव-सागर के अंधेरा को ज्ञान के सिवाय कर्म और अध्यात्म में भी तथा किसी भी अन्य में क्षमता नहीं है जो कि भव-दुःख मिटा दे । भव-दुःख मिटाने की क्षमता-शक्ति एकमात्र ज्ञान में होती है । अतः यहाँ पर विमल विलोचन का स्पष्टतः भाव ज्ञान दृष्टि से ही है । पुनः तीसरी बात यह है कि ज्योति प्रधान दिव्य दृष्टि की बात पहले आ चुकी है और दिव्य दृष्टि से श्रेष्ठ-सर्वश्रेष्ठ, दिव्य-दृष्टि से उत्कृष्ट-सर्वोत्कृष्ट, दिव्य दृष्टि से उत्तम-सर्वोत्तम, आत्म दृष्टि के ऊपर बाद में एकमात्र ज्ञान दृष्टि ही होता है जो तत्त्व दृष्टि, ज्ञान चक्षु, सम्यक दृष्टि, बोध दृष्टि भगवद् दृष्टि आदि शब्दों से भी जाना जाता है । मोह की समाप्ति दिव्य दृष्टि से सम्भव है मगर भव दुःख तो करोड़ों जन्म ज्योति और दिव्य दृष्टि से नही मिटेगा यह ज्ञानदृष्टि से ही मिट सकता है, मिटता है।
        सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! ज्योति सुमिरण और हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न होने से तो उस दिव्य ज्योति से मोह रूपी अंधेरे का नाशा हो जाता है और जिस भाग्यशाली पुरुष के हृदय में दिव्य ज्योति आ जाती और हृदय के अन्दर दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है जिससे कि मोह रूपी अंधेरे का नाश हो जाता है तत्पश्चात् उस परम भाग्यशाली के हृदय में ही विशेष पवित्र दृष्टि अर्थात् ज्ञानदृष्टि प्रकट हो जाती है, खुल जाती है, ज्ञानदृष्टि उघर जाती है और ज्ञान दृष्टि जब खुल जाती है, प्रकट हो जाती है, तब भव सागर का दोष-दुःख रूपी अंधेरा भी मिट जाता है और जब ज्ञानदृष्टि के प्रकट हो जाने या खुल-उघर जाने से भव-सागर का दोष दुःख मिट जाता है, दोष-दुःख समाप्त हो जाता है- तत्पश्चात् ही-
सूझहिं रामचरित मनि मानिक । 
गुपुत प्रगट जहाँ जो जेहि खानिक ।।
     व्याख्याः- मणि के विशुद्ध स्वच्छ ज्योति-तेज के समान जो श्री रामचन्द्र जी का चरित-लीला है, समझ में आयेगा । यानी दिव्य ज्योति के सुमिरण से तो हृदय में दिव्य दृष्टि की उत्पत्ति होती है-प्राकट्य होता है जिससे कि मोह रूपी अंधेरे का नाश हो जाता है, और जिस भाग्यशाली के हृदय में दिव्य ज्योति और दिव्य दृष्टि आ जाता है और मोह रूपी अंधेरे का नाश हो जाता है, तत्पश्चात् विशेष पवित्र दृष्टि रूपी ज्ञान दृष्टि उघर जाती है या ज्ञान दृष्टि प्रकट हो जाता है, ज्ञान दृष्टि खुल जाती है जिससे कि भव-सागर का दोष-दुःखयपी अंधेरा भी मिट जाता है । तत्पश्चात् ही यानी इतना पूर्वोक्त सब जब हो जायेगा, तब मणि के तेज के समान ही विशुद्ध एवं स्वच्छ श्री रामचन्द्र जी का चरित यानी लीला समझ में आ पायेगा । यदि पूर्वोक्त कही हुई बातें पूरी नहीं हुई- ये उपरोक्त विधान पूरा नहीं हुआ तो श्री रामचन्द्र जी का विशुद्ध एवं स्वच्छ चरित-लीला कदापि समझ में नही आ सकता । ज्ञान दृष्टि के प्रकट हो जाने पर भव सागर के दोष-दुःख के मिट जाने पर मणि के विशुद्ध एवं स्वच्छ तेज के समान ही श्री रामचन्द्र जी का विशुद्ध एवं स्वच्छ चरित-लीला केवल राम चरित मानस में ही नहीं, जहाॅंँ-जहाँ भी, जिस-जिस खान या शास्त्र-सन्त-भक्त-ग्रन्थ-सद्ग्रन्थ आदि आदि में होगा , वहाँ-वहाँ ही सब प्रकट हो जायेगा गुप्त लीला भेद प्रकट हो जायेगा- सब ही स्पष्टतः ज्ञानदृष्टि से ही समझ-बूझ के साथ ही जिस-जिस शास्त्र में भी गुप्त चरित-लीला होगा, जिस-जिस-सन्त-भक्त में भी गुप्त चरित-लीला होगा, सबका भेद रहस्य ही प्रकट हो जायेगा, समझ में आने लगेगा, दिखायी देने लगेगा । यदि इस प्रकार के विधान से नहीं गुजरे हैं, इन सब विधानों को नहीं जान पाये हैं, तब आप के समक्ष असल चरित-लीला तो गुप्त का गुप्त ही रह जायेगा और जब गुप्त का गुप्त ही रह जायेगा, तो न तो आप लोग जान ही सकते हैं और न तो किसी को जना ही सकते हैं । मुझ सन्त ज्ञानेश्वर का कहना है चुनौती है कि ये धन-लोलूप जितने भी रामायणी मानस मर्मज्ञ, मानस कोकिल, मानस के जानकार बनते हैं किसी को भी चरित-लीला की यथार्थतः जानकारी नहीं है । इनमें किसी को भी श्री रामचन्द्र जी के चरित-लीला के सम्बन्ध में कोई ही जानकारी नहीं है । वे सभी ही भोले-भाले भगवद् प्रेमी, जिज्ञासु जनता को भरमा-भटका कर अपना स्वार्थ साधते हैं कोई कुछ नहीं जानता है । सब भगवत् कृपा ।
      सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! अस्सी पञ्च मन्दिर विराट सत्संग एवं शंका-समाधान समारोह के अन्तर्गत मिथ्याज्ञानाभिमानी-मिथ्यावादी एवं मिथ्याचारियों को सचेत-सावधान करते हुये तथा श्री रामचन्द्र जी के चरित-लीला से नाजानकार- अनभिज्ञ रहने के बावजूद भी ये नासमझदारी वश भ्रामक उपदेश देने वालों, समाज को भ्रमित करने-भटकाने वाले नाजानकार रामायणियों पर प्रहार करता हुआ सन्त ज्ञानेश्वर ने उन सभी को ही जो कि धन के लोभ में रामायणी बन बैठे हैं, को चुनौती देते हुये आगे श्री रामचरित पर ही सत्संग सुनाने  लगे जिसमें श्री रामचरित की गूढ.ता-गोपनीयता की यथार्थता एवं महत्ता को प्रकट करते हुये ज्ञान प्रधान आगे फिर कहे-
श्रोता बकता ज्ञान निधि कथा राम के गूढ़ ।
     किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़ ।।   
       व्याख्याः- सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! आप लोग मात्र सुने ही नहीं-थोड़ा गुनें भी, यानी थोड़ा मनन-चिन्तन भी करें कि सन्त ज्ञानेश्वर मानस के दोहा-चैपाइयों की व्याख्या जो दे रहा है-कर रहा है उस पर थोड़ा भी तो आप भी सोचें समझें कि असलियत क्या है ? वास्तविकता क्या है ? मैं किस प्रकार से कहूँ कि- ऐ रामायणी बन्धुओं ! पहले जरा आप इस दोहे का अर्थ तो बतायें कि यह दोहा वास्तव में क्या संकेत दे रहा है ? मेरे समझ से तो यह दोहा यही भाव प्रकट कर रहा है कि श्री रामचन्द्र जी की कथा इतनी आसान नहीं है कि जो चाहे सो ही रामायणी बन जाय और कहने लगे । श्री राम कथा ही है जिसे अमर-कथा के रूप में शंकर जी ने योग्यता परीक्षण के पश्चात् ही पार्वती जी को सुनाये थे । इस श्रीराम कथा की मर्यादा जाननी हो तो शंकर जी से पूछो कि सती का विनाश बर्दास्त कर लिये, मगर श्री रामचन्द्र जी का रहस्य नहीं ही बतायें क्योंकि उसके योग्य नहीं थी । पार्वती जी को भी अमरकथा तब तक नहीं सुनाये थे जब तक कि वह अपने को अर्धांगिनी मानती जानती थीं । जब वहाॅंँ बिल्कुल ही दासता स्वीकार कर लीं, तब ही उन्हें अमर कथा को गोपनियता की मर्यादा रखते हुये ही जनायें थे- पार्वती जी ने कहा था कि- ‘जो मो पर प्रसन्न सुखराशी । सत्य कहहु जानिय निज दासी ।’ जब दासता स्वीकार कर ली, तब ही श्री राम कथा सुनाये थे । आज के रामायणी जी सब चार हजार रोज, तो दो हजार रोज, तो ढाई हजार रोज पर रामायण सुना रहे हैं । खुद ही भक्ति का पता नहीं, भक्ति की महिमा-माया के त्याग का वर्णन करने लगते हैं तो लगता है कि उनके समान भक्त और त्यागी कोई हो नहीं सकता। पूछा जाय कि ज्ञान क्या है ? यह जानकारी है, तो सिवाय चुप्पी का और कोई रास्ता नहीं। यदि जवाब देते हैं तो सरासर झूठे हैं क्योंकि ज्ञानी रामायणी-वेदान्ती आदि नहीं । वह तो भगवद् ज्ञानी कहलाता है, ज्ञानी होता है ।
सद्भावी सत्यान्वेषी जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! आइए यहाँ से पूर्वोक्त दोहा-श्रोता  . .. बिमूढ.।। की व्याख्या को यहाँ पर देखा जाय । अभी तक तो व्याख्या में ही इसके भूमिका पर ही हम लोग रह गये । हाँ, तो श्रोता और वक्ता जब तक दोनों ही ज्ञानी नहीं होगें, तब तक श्री रामचन्द्र जी के कथा को वे समझ ही नहीं सकते हैं । जिस प्रकार श्री रामकथा को कहने के लिये ज्ञानी ही कहने का हकदार है क्योंकि वह समझने में सक्षम होता है, ठीक श्रोता को भी ज्ञानी होना आवश्यक हैं, अन्यथा श्री रामचन्द्र जी की कथा गूढ. है, जो बिना ज्ञान का सुनने के बावजूद भी समझ में आ ही नहीं सकता हैं । सोचने वाली बात है कि जब श्री तुलसी दास जी अपने पर कह रहे हैं कि- ‘किमि समुझों मैं मूढ. जन कलिमल ग्रसित बिमूढ. ।।’ मैं मूढ. आदमी श्री राम जी की कथा को कैसे समझ सकता हूँ। एक तो मैं मूढ. आदमी और दूसरे कलि के मल काम-क्रोध-लोभ- मोह-अहंकार से ग्रसित होकर और ही विशेष मूढ.-विमूढ. हो गया हूँ । बन्धुओं ! यहाँ पर थोड़ा सोचने-समझने की बात है कि श्रोता और वक्ता जब तक ज्ञानी नहीं होगा, ज्ञानी नहीं रहेगा तब तक वास्तव में कथा में आनन्द झरेगा ही नहीं, आनन्द मिलेगा ही नहीं । वास्तव में श्री रामकथा से भगवद् रस रूप परमानन्द लेना हो, यथार्थता जानना-समझना हो, तो पहले ज्ञानी होना अनिवार्यतः आवश्यक-आवश्यकता है क्योंकि श्री रामकथा अत्यन्त ही गहन एवं गूढ. है, गहन एवं गुप्त है, जिस गहनता और गोपनीयता को सचमुच ही कोई ज्ञानी ही कह भी सकता है और कोई ज्ञानी ही अच्छी प्रकार सुन-समझ भी सकेगा । काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार से युक्तजन तो कदापि श्री रामकथा जान ही समझ नहीं सकते । ये धन-लोलूप मिथ्याज्ञानाभिमानी, मिथ्यावादी-मिथ्याचारी एवं मिथ्याहंकारी रामायणी बनने-कहलाने वाले श्री रामकथा को क्या जानेंगे-समझेंगे अर्थात् नहीं जान-समझ सकते है। क्योंकि उनकी दृष्टि तो लोगों को मुग्ध करने और पैसा ऐंठने की रहती है और वृत्ति, परोक्ष रूप में बिल्कुल ही रागी-द्वेषी की होती-रहती है । लोभ और आडम्बर-पाखण्ड-ढोंग के तो ये साक्षात् ही चलता-फिरता मूर्ति ही हैं मोह और अहंकार तो इनकी मूल थाती ही है । ये तो रामायण के व्याख्याता रामायणी महोदय जी लोगों की हाल है कि नाच-बाजों की तरह से पहले ही सट्टा बंध जाता है, बहुत तो सारी रकम पहले भुगतान कराकर ही रामायण व्याख्यान देने जाते हैं । मुझ सन्त ज्ञानेश्वर की तो इन समस्त रामायण व्याख्याता बन्धुओं को ही चुनौती है कि श्री रामचरित-लीला के सम्बन्ध में इन लोगों को कुछ भी जानकारी नहीं है। इन व्याख्याताओं का सारा व्याख्यान ही मिथ्या एवं भ्रामक होता है, ये लोग अनभिज्ञ हैं । जितने भी रामायणी हैं- रामायण के व्याख्यान का तो उन्हें अधिकार ही नहीं है- वास्तविकता तो यहाँ तक है कि ये लोग श्री रामकथा सुनने के भी अधिकारी नहीं है क्योंकि ज्ञानी ही सुनने का भी हकदार है । सब भगवत् कृपा ।
     सद्भावी भगवद् जिज्ञासु बन्धुओं ! आप बन्धुओं को हो सकता है कि मुझ सन्त ज्ञानेश्वर की बात आश्चर्यजनक लगे, छोटी मुँह बड़ी बातें लगे, मगर सत्यता और यथार्थता ही यही है कि ये धन-लोलुप रामायणी भी लोग रामचरित को जानते-समझते ही नहीं जैसा कि पूर्वोक्त पैरों में कहा गया है । अभी-अभी आप लोगों को सुनाया गया है कि श्रीराम जी के चरित लीला को समझने के लिये-देखने के लिये दिव्य दृष्टि और ज्ञानदृष्टि दोनों ही अनिवार्य है, जिसके पास दिव्य दृष्टि और ज्ञान दृष्टि ये दोनों ही नहीं है, दोनों में से एक दिव्य दृष्टि भी नहीं है, वे रामायणी मानस मर्मज्ञ, मानस कोकिल, मानस विशेषज्ञ आदि कैसे हो सकते हैं ? यह सब ही मनगढन्त उपाधियों को ले-लेकर समाज में उपदेशक बने हुये हैं ।  यह सोचने वाली बात है कि अन्धा रुप का वर्णन करे, बहरा सुन्दर राग का वर्णन करे, जन्मजात दोनों पैर का लड़का-दौड़ने की कला बताये,                        अशिक्षित शिक्षा का महत्व बताये, कर्मकाण्डी-अध्यात्म का महत्व बताये, आध्यात्मिक-तत्त्वज्ञान का महत्व बताये, अन्धा-आँख का वर्णन करे, बहरा कान का वर्णन करे, गूंगा वाणी का गुण गाये, अज्ञानी-ज्ञान की बातें करे, दिव्य दृष्टि और ज्ञान दृष्टि हीन सद्ग्र्रन्थों-वेद,पुराण, रामायण, गीता, बाइबिल, र्कुआन आदि धर्म-शास्त्रों की बातें करें, धन-लालूप कामी, क्रोधी, लोभी, मोही और अहंकारी, महात्मा और धर्मात्मा बने, मिथ्याज्ञानाभिमान एवं मिथ्याहंकार में चूर्ण-फूले हुये मिथ्यावादी एवं मिथ्याचारी वास्तव में सत्य ज्ञान एवं भगवान् की बातें करें और धर्म सम्राट, धर्माचार्य-महात्मा-धर्मात्मा बने तथा सत्संग विरोधी अपने को धार्मिक-धर्म सम्राट, धर्माचार्य, धर्मात्मा बनने लगे, तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि उपरोक्त इन सभी बनने वालों से पूरा का पूरा समाज ही विनाश को न प्राप्त हो जाय, समाज पूरा का पूरा ही मिथ्यावादी-मिथ्याचारी न हो जाय, दुराचार एवं भ्रष्टाचार विनाश तक को न बुलालें; इन उपरोक्त बनने वालों विरोधी गुण-स्वभाव-वृत्ति-कर्म वालों से ही तो आज का समाज मिथ्यावाद-मिथ्याचार एवं दुराचार-भ्रष्टाचार के सीमा को भी अतिक्रमण कर चुका है, अब मात्र विनाश की ही प्रतीक्षा है कि परमप्रभु कब इस दुष्टता एवं भ्रष्टता भरे समाज को विनष्ट कर सत्पुरुषों का समाज, मुक्त और निर्दोष जीवन-यापन करने वाले सत्य-धर्म- ‘सत्यं वद्ः धर्मं चर’ वाला समाज स्थापित करेगा; अब मात्र विनाश की ही प्रतीक्षा हो रही है, विनाश की सारी प्रक्रियाएँ पूरी हो चुकी हैं, अब मात्र परमपुरुष-भगवान् के आदेश का ही इन्तजार है । मुझ सन्त ज्ञानेश्वर द्वारा तो यह बार-बार ही घोषणा की जा रही है- चुनौती दी जा रही है कि ये जितने अपने को धर्म सम्राट, धर्माचार्य, धर्मात्मा बनते हैं, प्रायः सब ही मिथ्यावादी एवं मिथ्याचारी हैं इन्हें श्री रामचरित के बारे में बिल्कुल ही जानकारी नहीं है । यह वास्तविकता है- सत्यता है-यथार्थता है कि ये सबने तो श्री रामकथा को जानते ही है और न जानने के अधिकारी ही हैं क्योंकि यह बात सत्य ही है कि- ‘श्रोता वक्ता ज्ञान निधि कथा राम कै गूढ. ।’ श्रोता वक्ता दोनों ही जब तक ज्ञानी (ज्ञान के खजाना) वाला नहीं होंगे- दिव्य दृष्टि और ज्ञान दृष्टि वाला नहीं होंगे ? कामी व्यसनी गृहासक्त-वैराग्य का वर्णन करें, अति लोभी त्याग का वर्णन करे, मर्मज्ञ आसक्ति वाला ज्ञान का वर्णन करे, शैतान भगवान् की महिमा गाये, यह मानने-पहचानने वाली बात नहीं, अवश्य खतरा है ।
केन्दीय कारा भागलपुर
12/1/1985 ई  .
        सद्भावी सत्यान्वेषी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! अस्सी, पञ्च मन्दिर विराट सत्संग एवं शंका-समाधान समारोह के अन्तर्गत सत्संग सुनाते हुये सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द ने समझाते हुये आगे कहा कि सन्त ज्ञानेश्वर का कहना यह नहीं है कि आप लोग रामायण पढ़ें ही नहीं, कथा-प्रवचन सुनें ही नहीं । बल्कि सन्त ज्ञानेश्वर का कहना यह है कि आप लोग खूब पढ़ें, जितना पढ.ते हैं उससे अनेक गुना पढ़ें, रामायण ही पढ.ते हैं तो गीता और उपनिषद भी पढ़ें, वेद और पुराण भी पढ़ें, बाइबिल और र्कुआन भी पढ़ें; खुब पढ़ें। खाना-पीना-नहाना जैसा आवश्यक समझ कर पढ़ें, बल्कि उससे अधिक आवश्यक समझ कर पढ़ें, मगर यहाॅं पर यह प्रश्न भी तो उठता है कि ‘इन सभी या किसी सद्ग्रन्थों या शास्त्र को क्यों पढ़ें ?’ धर्म-ग्रन्थों या धर्म-शास्त्रों से लाभ क्या होगा ? मुझ सन्त ज्ञानेश्वर को तो इसके जवाब में एक ही बात नजर आ रही है, एक बात दिखायी दे रहा है, वह यह कि- भगवद्ज्ञान, भगवद् परिचय और पहचान मिले, भगवत् प्राप्ति हेतु प्रेरणा मिले और यदि भगवद् ज्ञान प्राप्त हो चुका है तो विश्वसनीय सत्य-प्रमाणों द्वारा उसको पुष्टि मिले ताकि श्रद्धा और विश्वास बढ़े, निष्ठा और प्रगाढ. होवे, प्रेम-सेवा-भक्ति भाव बढ़े-कल्याण में सहायता मिले-इसलिये धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन एक अनिवार्यतः विधान है धर्म ग्रन्थों के समझदारी के साथ पढ.ने-सुनने से भगवत् प्रेम, अनन्य भगवत् प्रेम के तरफ, भगवद् सेवा, अनन्य भगवद् सेवा के तरफ, भगवद् भक्ति अनन्य भगवद् भक्ति के तरफ, भगवद् भाव अनन्य भगवद् भाव के तरफ सदा ही अग्रसर होता रहता है । मगर यह बात याद रहे कि व्याख्यान अधूरे ज्ञान वाले को नहीं देना चाहिये क्योंकि इससे जन समाज में भ्रामक धारणा बनने लगते हैं । आज के रामायणियों को पहले सन्त से दिव्य दृष्टि और ज्ञान दृष्टि हासिल करना चाहिये, दिव्य दृष्टि से दिव्य ज्योति का साक्षात्कार करना चाहिये और उस दिव्य ज्योति से मोह आदि अंधेरा को दूर भगाना-समाप्त कर देना चाहिये तत्पश्चात् ज्ञान दृष्टि से भगवद् प्राप्ति-परिचय-पहचान-मिलन कर सर्वतोभावेन अपना तन-मन-धन निष्कपटता पूर्वक भगवद् समर्पित कर सदा-सदा के लिये भगवद् शरणागत हो जाना चाहिये तत्पश्चात् भगवद् लीला रुप यह श्री रामचरित समझ में आयेगा । श्री राम कथा सुनना चाहिये, मगर यह बात अवश्य याद रखना चाहिये कि वास्तव में किसी अज्ञानी द्वारा कहा गया दिया गया श्री राम कथा पर व्याख्यान यथार्थ और सत्य नहीं है, जो सुन-समझ रहे हैं, वास्तव में यथार्थतः वैसा हो ऐसी बात नहीं है, इसीलिये कहा जा रहा है कि ज्ञानहीन को व्याख्याता नहीं बनना चाहिये । पहले ज्ञान को प्राप्त करना चाहिये अपने सद्गुरुदेव के प्रति शरणागत सेवा-भाव निःशंक होना चाहिये, माया-मोह से विरत होना चाहिये तत्पश्चात् श्री रामकथा ठीक-ठीक समझ में आ सकेगा । श्रोता को भी भगवद् ज्ञान प्राप्ति हेतु सतत् ही प्रयत्नशील होना चाहिये ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् सुनने वाली बातें दिखायी भी देती रहती है ।
        सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! श्री राम कथा की यथार्थता उन्ही को मालूम हो सकती है, उन्हीं को समझ में भी आ सकता है तथा वास्तव में श्री रामकथा के सही अधिकारी योग्य श्रोता-वक्ता वही हो सकते हैं, जिन्हें सत्संग अतिप्रिय हो । ये सत्संग विरोधी आसुरी वृत्ति और राक्षसी कर्मवाले शैतान जन श्री राम चरित को क्या समझेंगे ?श्री राम कथा को तो ये सब धनोपार्जन का अच्छा-खासा व्यवसाय बना लिये हैं । सत्संग करना, सत्संग में भाग लेना-सुनना इन मिथ्यावादी-मिथ्याहंकारियों को मर्यादा हीन होना लगता है । ये सत्संग विरोधी कभी भी श्रीराम कथा को समझ सकते हैं । कभी नहीं ये सब रामायणी बनते हैं, रामायण पर लम्बा-लम्बा कथा-प्रवचन करते हैं और तुलसीदास जी ये पंक्तियाँ क्या इन लोगों को नहीं दिखायी देती ? जो कि अभी-अभी पहले बतायी गयी है कि- ‘श्रोता वक्ता ज्ञाननिधि कथा राम कै गूढ. । किमि समझौं मैं मूढ. जन कलिमल ग्रसित    बिमूढ . ।।’  पुनः यह इन लोगों को नहीं दिखायी देती है कि-
राम कथा के तै अधिकारी । 
जेहि सतसंगति है अति प्यारी ।।
       अर्थात्ः- श्री राम कथा का वही अधिकारी है जिसे कि सत्संग अति प्रिय लगता हो। ऐसा तो तुलसी दास ने कहीं भी नहीं लिखा कि राम कथा का सच्चा अधिकारी सत्संग विरोधी है । यह आप श्रोता बन्धुगण भी थोड़ा सोचें कि भगवान् का सत्संग भी विरोध की चीज है । यह सन्त ज्ञानेश्वर गलत बोल रहा हो, गलत सत्संग सुना रहा हो, भ्रामक बात कह रहा हो, तो शंका-समाधान का नित्यशः अवसर दिया ही जाता है उसमें उपस्थित होकर यह बताना चाहिये यह बात गलत हेै, यह बात भ्रामक है, यह बात सन्देहास्पद है परन्तु सामने तो कोई आता ही नहीं । आता भी तो कैसे ? अपने विषय में उन लोगों को जानकारी है और यहाॅंँ हो रहे सत्संग से सन्त ज्ञानेश्वर के सम्बन्ध में कुछ आभास हो ही जा रहा है फिर सामने आते कैसे ? समाज के बीच झूठी जो मर्यादा स्थापित किये हैं उसको समाप्त कराने आते । अतः आप भगवद् जिज्ञासु बन्धुओं से मुझ सन्त ज्ञानेश्वर का बार-बार ही इतना ही बता देना है कि कभी भी सत्संग का चाहे वह जिस किसी के द्वारा भी किया जाता हो, उसमें अवश्य भाग लेना चाहिये, उसे अवश्य ही श्रद्धा एवं निष्ठा पूर्वक सुनना चाहिये यदि कोई शंका-सन्देह का आभास होता हो तो निःसंकोच भाव से उचित रूप में समाधान हेतु अवसर मिलने पर वक्ता के समक्ष अपने शंका को रखना चाहिये और मिलने वाले समाधान को गौर करते हुये समझना चाहिये । नहीं समझ में आने पर प्रमाण की याचना करनी चाहिये क्योंकि वक्ता की जिम्मेदारी है कि वह आप के शंका का उचित रुप में समाधान दे । सत्संग का विरोध जैसा घोर-घोर-घोरतम घृणित कर्म पूरे सृष्टि में ही और कुछ भी नहीं हो सकता है, इसलिये सत्संग का विरोध करना तो दूर रहा, सत्संग विरोधयों का मुख तक देखने में महान दोष लगेगा, उसकी बातें सुनने में महान दोष लगेगा क्योंकि सत्संग विरोधी निश्चित ही आसुरी वृत्ति और राक्षसी कर्म वाला कोई शैतान या शैतान प्रेरित शैतान दूत और दुष्ट मण्डली ही होते हेैं, अन्यथा यह सोचने वाली बात है कि सत्संग का विरोध क्यों ? इससे मात्र हानि उन ढोंगी-आडम्बरी-पाखण्डियों का ही है जो बेनकाब हो रहे हैं। यह सत्संग भगवान् का सत्संग है, भगवान् द्वारा हो रहा है फिर इसे रोक कौन सकता है? कोई नहीं।
संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस