सत्संग महिमा

जय प्रभु सदानन्द जी 
भगवत् कृपा हि केवलम्
सत्संग महिमा
बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की ऽऽऽ जय ! 
धर्म की --- जय हो !
अधर्म का --- विनाश हो !
प्राणियों में  ---  सद्भावना हो !
विश्व का  ---  कल्याण हो !
सत्य की  ---  विजय हो !
सकल सज्जनबृन्द की  ऽऽऽ जय !
सकल भगवद् समाज की ऽऽऽ जय !
बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की ऽऽऽ जय !
सत्यमेव जयते, नानृतम् !!
     आप सभी के बीच इस सत्संग कार्यक्रम को ले करके आप हम सभी यहाँ पर उपस्थित हुये हैं । इस सत्संग कार्यक्रम का अपना एक विशेष प्रयोजन है। इसका विशेष उद्देश्य है । जैसा कि आप सभी सुन-जान चुके भी होंगे कि जीव-ईश्वर और परमेश्वर तीनों की पृथक्-पृथक् यथार्थतः जानकारी, साक्षात् दर्शन, बात-चीत सहित परिचय-पहचान और मुक्ति-अमरता के साक्षात् बोध को लक्ष्य बना करके आप सभी के बीच यहाँ पर उपस्थित होने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है । वैसे यह एक धार्मिक सभागार है । यहाँ पर प्रायः बराबर आप सभी सत्संग कथा-प्रवचन सुनते आ रहे होंगे । लेकिन उन कथा-प्रवचनों से वर्तमान सत्संग में आप सभी को जो कुछ भी अन्तर महसूस हो-- जो कुछ भी अन्तर जानने-समझने में मिले, आप सभी उसका समाधान प्राप्त कर सकें । उसका समुचित हल प्राप्त कर सकें, इसके लिये दोनों वक्त ही, दोनों समय ही सत्संग कार्यक्रम के पश्चात् आधे-आधे घण्टे का शंका- समाधान का कार्यक्रम रखा गया है ताकि आप सभी को जिस-किसी विषय-वस्तु पर किसी भी प्रकार का शंका-संदेह अथवा किसी भी प्रकार की भ्रामकता या गलती की अनुभूति-आभास होता है तो आप उसका समुचित समाधान प्राप्त कर सकें । आवश्यकतानुसार आप सभी प्रमाण भी प्राप्त कर सकें । इन सभी बातों को मद्दे नजर रखते हुये आप सभी के बीच यहाँ उपस्थित होने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है । इस प्रकार से कहने के लिए तो ये बातें हास्यास्पद और आश्चर्यजनक है ही, कि जीव एवं ईश्वर और परमेश्वर का कहीं दर्शन होता है ? जीव एवं ईश्वर और परमेश्वर पृथक्-पृथक् हैं और जीव एवं ईश्वर और परमेश्वर क्या इतनी आसानी से सात दिन सत्संग सुन करके हम सभी प्राप्त कर लेंगे ? ये सभी बातें अपने आप में आश्चर्य को लिये हुए अवश्य हैं। इसमें संदेह नहीं है । मगर आश्चर्य का अर्थ कभी भी गलत नहीं रहा है । आश्चर्य का अर्थ कभी गलत नहीं रहा है और न तो वर्तमान में ही गलत है । हमारी समझ में तो आश्चर्य का अर्थ सत्य की क्षमता-शक्ति जो है, इससे ऊपर का सत्य जो है, वास्तव में वही आश्चर्य है । और उसी आश्चर्य को आप सभी के समक्ष जो आज तक आप लोगों के लिए आश्चर्य बना हुआ है, हम आप सभी के बीच प्रगट करने के लिये, आप सभी के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए उपस्थित हुये हैं ।
     बोलिए परमप्रभु की --- जय ! जैसा कि अभी-अभी आप बन्धुओं के बीच संकेत किया गया है कि आप सभी कथा-प्रवचन तो बहुत कुछ सुने होंगे। एक से एक अच्छे से अच्छे कथावाचक, प्रवचनकर्ता महात्मन् बन्धुओं के बीच आये होंगे । इसमें संदेह नहीं है । मगर इस सत्संग कार्यक्रम का अपना एक उद्देश्य है, लक्ष्य है जो अपने आप में आश्चर्य तो अवश्य है, मगर सत्य भी है। आप सभी देख रहे होंगे बैनरों पर   ‘‘महानतम् आश्चर्य किन्तु परमसत्य’’! वह आश्चर्य क्या है ? मात्र सात दिन के सत्संग कार्यक्रम को सुनने से जो जिज्ञासा-श्रद्धा आप सभी में उत्पन्न  होगी, उसके माध्यम से भगवत् समर्पण-शरणागत के आधार पर आप सभी को जो पृथक्-पृथक् जीव एवं ईश्वर और परमेश्वर के दर्शन कराने की  बात । पर्चा में जो कि चारों तरफ वितरित किया गया है आप सुने-जाने होंगे कि जीव, ईश्वर और परमेश्वर के दर्शन से सम्बन्धित ये कार्यक्रम हो रहा है । थोड़ी देर के लिये आप सभी को आश्चर्य के साथ हास्यास्पद भी लगता होगा । स्वाभाविक है । लेकिन आप सभी से कम हास्यास्पद और आश्चर्य मुझे आप सभी के इस व्यवहार पर नहीं लग रहा है। जितना आप सभी आश्चर्य महसूस करते हैं जीव, ईश्वर और  परमेश्वर के दर्शन से । तो उससे अधिक आश्चर्य तो मुझे यह लगता है कि आप सभी का यह जीवन, मानव जीवन जिस परमप्रभु परमेश्वर की प्राप्ति के लिए ही है, जिस मानव योनि का एकमेव उद्देश्य भगवत् प्राप्ति  है, मोक्ष प्राप्ति है; उसी भगवद् दर्शन और प्राप्ति पर आप सभी को आश्चर्य हो रहा है । उसी पर जो आपके जीवन का लक्ष्य है । जो कि आपके जीवन का उद्देश्य है । मानव जीवन का एकमेव उद्देश्य है भगवत् प्राप्ति-मोक्ष प्राप्ति । जो आपके जीवन का उद्देश्य है, जो आपके जीवन का लक्ष्य है; उसी के प्रति आप अश्चर्य में हैं। हम और तो कुछ  कह नहीं रहे हैं; और भगवत् प्राप्ति की बात कर रहे हैं और आप सभी को आश्चर्य हो रहा है । इससे कम आश्चर्य मुझे भी तो नहीं हो रहा है । आखिर आप अपने जीवन का उद्देश्य क्या बना बैठे हैं ? कि आप सभी को अपने जीवन के लक्ष्यभूत भगवत् प्राप्ति पर ही आश्चर्य हो रहा है । हम इसी विधान को ले करके आपके बीच उपस्थित हुए हैं । ये कोई मनमाना पद्धति नहीं है । इसमें कोई मन्त्र नहीं, इसमें कोई यन्त्र नहीं, इसमें कोई तन्त्र नहीं, इसमें किसी भी प्रकार का जादू-टोना, मिस्मरीजम और हिप्नोटीजम नहीं । प्रायः सभी सद्ग्रन्थों से प्रमाणित-सत्यापित यह विधि-विधान है । जो कुछ भी है आप सत्संग सुन रहे हैं । जिसमें बार-बार ही हम यह कहते रहेंगे--नित्य प्रति ही कहते रहेंगे । आप सभी सुनते-सुनते शायद ऐसा भी महसूस करने लगें कि रोज बार-बार ही ये वही बातें दोहराते रहते हैं---जीव एवं ईश्वर और परमेश्वर का दर्शन ऐसा होगा-वैसा होगा, इस तरह से होता है-उस तरह से होता है । ऐसा लगेगा आपको कि बार-बार रिपीट कर रहे हैं--बार-बार दोहरा रहे हैं; लेकिन जिस दिन पात्रता-परीक्षण की बारी आएगी उस दिन समझ में आएगा कि बार-बार जो दोहराया जाता था उसका क्या रहस्य था, उसका क्या अर्थ था। हमारा मुख्य विषय यही है, बस इतना ही । उसी के परिप्रेक्ष्य में दो-चार शब्द आप लोगों के बीच रखना है--कहना है--गाना है । जो कुछ कहना है उसी लक्ष्य के अन्तर्गत, उसी उद्देश्य के अन्तर्गत, इन्हीं बातों के अन्तर्गत कि आपको जीव का दर्शन कराया जाएगा, आपको आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म का दर्शन कराया जाएगा, आपको परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म का दर्शन कराया जाएगा । ये बार-बार हम कहते रहे हैं और कहते रहेंगे क्योंकि यही एक उद्देश्य से (एकमेव  इसी उद्देश्य के साथ-साथ मुक्ति और अमरता के साक्षात् बोध के लक्ष्य से)-- यह कार्यक्रम हो रहा है ।
       आप किताब में पढ़ते आये होंगे मुक्ति,  पढ़ते आये होंगे अमरता, सुनते आये होंगे जीव, सुनते आये होंगे आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म, सुनते आये होंगे परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म । मेरे द्वारा आज ये शब्द गढ़े नहीं जा रहे हैं। मेरे द्वारा आज ये शब्द लिखे-पढ़े नहीं जा रहे हैं। आप सभी बहुत पहले से इन शब्दों को सुनते आये होंगे । बहुत महात्मन् जन आप सभी के सामने से गुजरे होंगे ---बहुत अच्छे-अच्छे प्रवचन करने वाले बहुत अच्छे-अच्छे हँसाने और रुलाने वाले; इसमें संदेह नहीं है । लेकिन एक प्रश्न आपके दिल-दिमाग में अवश्य ही शेष रह गया होगा--बना रह गया होगा कि आखिर ये जीव, ईश्वर और परमेश्वर क्या है ? ये क्या होता है ? कहाँ रहता है ? कुछ  लोग तो ऐसा यहाँ तक भी कह डालते हैं; अरे ये सब कल्पना है ।      क्या है ? काल्पनिक है और कोई सन्त-महात्मा उतरा और कल्पना करके इसकी रचना कर दिया । इसे लिख-पढ़ दिया । मगर ऐसी बात नहीं है । हमारे सामने भी यह प्रश्न आया था जहाँ ठहराव लिये थे । इस पर कुछ कड़ा जवाब दिये थे जब कल्पना की बात आयी थी। इसलिये कि पढ़ा-लिखा सुशिक्षित समाज, बुद्धिजीवी समाज, ये पढ़ाई-लिखाई, सुशिक्षा और बुद्धिमत्ता इसलिए नहीं है कि आप आँखें बन्द करके लकीर के फकीर बन जाइये । ये इसलिए है कि जो कुछ भी सत्य आपके सामने गुजरता है, जो कुछ भी बातें आपके सामने गुजरती हैं; आप उसके विषय में यथार्थतः जानकारी करने का प्रयास करें । आप उसके विषय में यथार्थता के साथ जानने का प्रयास करें । हो सकता है -- यदि ऐसी सम्भाव्यता उसकी है तो उसे देखने का, उसे जाँच-परख करने का, उसके असलियत के अनुसार उसको जानते हुए, अपने और उसके बीच के व्यवहार को जान और जहाँ तक सम्भव हो सके आप उस सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त  करें । आप भी उस परमगति को, परममति को प्राप्त करें । आप भी उस परम आनन्द-परमशांति को प्राप्त करें । हम तो इसी उद्देश्य को ले करके आप सभी के बीच उपस्थित हुए हैं। 
       यह जो सभा है- यह जो कार्यक्रम चल रहा है ये सत्संग है । सत्संग का अपने आप में अर्थ होता है-- सत् और संग । सत् और संग दो शब्द मिल करके सत्संग बना है । ‘‘यानी ऐसे क्रिया-कलाप, ऐसे व्यवहार, ऐसे वचन जिसके माध्यम से आप-हम सबको सत्य के संग का प्राप्ति हो ।  सत्य का संग हो । वास्तव में सत्संग दो अर्थों में है । हर चीजें ही संसार में दो अर्थों में है। हर बात संसार में दो अर्थों में है । आप देखेंगे जैसे कि सुनने को मिलेगा नित्य प्रति । जो ही सत्संग सुनने-जानने को मिलेगा । जैसे हर चीजें-हर वस्तुएं प्रायः द्वैयार्थक हैं । दो अर्थों को लिए हुए , दो प्रकार की दो पद्धतियों को लिए हुए हैं। वैसे सत्संग भी दो अर्थ भावों में है । वास्तव में सत्संग वह है-- जिसमें परमप्रभु परमेश्वर को प्राप्त करके उसी परमेश्वरमय-उसी परमात्मामय होते-रहते हुए हम उसके सदासर्वदा सानिध्य में रहें; सच्चा  सत्संग तो वही है।  सच्चा सत्संग वही है -- परमप्रभु को प्राप्त करें, जानें-देखें, जाँच-परखकर पहचान हो जाने पर, सत्य ही हो जाने पर भक्ति-सेवा हेतु सदा ही - सर्वदा ही उसके सानिध्य में होवें और रहें । वास्तव में सच्चा सत्संग यही है । लेकिन ऐसी अवस्था को प्राप्त करने-कराने वाले विधान को भी दूसरे नम्बर के सत्संग में रख दिया गया । 
    ऐसा विधान, ऐसी वाणी, ऐसी बातें, ऐसे बचन जिससे सत्य की जानकारी प्राप्त होती हो, जिससे सत्य की प्राप्ति होने की बातें जानने-सुनने को मिलती हों, जिससे यथार्थतः सत्य की प्राप्ति होने की आशा-विश्वास यानी प्राप्ति हो रहा है; उस वाणी, उस विधि-विधान को ही सत्संग की परिभाषा में रखा गया जिसमें सत्य के विषय में ही - सत्य के सम्बन्ध में ही, उसकी जानकारी से सम्बन्धित, उसकी प्राप्ति से सम्बन्धित, उसके व्यवहार से सम्बन्धित, उसके साथ होने-रहने वाले विधान से सम्बन्धित जो विषय-वस्तुएं हैं वे सत्संग में आते हैं।
   हम यहाँ पर बैठ करके परमप्रभु की महिमा का गान करें, भगवद् अवतार की लीलाओं का गान करें और मात्र गायन करते रह जाएँ, उनके नाना तरह की लीलाओं का वर्णन करें, आपको हँसे-हँसावें, रोवें-रुलावें, झूम-झुमा करके कथा का समापन करें, कथा का विसर्जन करते चले जाएँ । आप भी यह कहते रहे। बहुत अच्छा कथा रहा है, बहुत अच्छे महात्मा जी रहे हैं, बहुत अच्छे स्वर-लय में गा रह थे, वे तो इतना बढि़या, सबको एक मन्त्र मुग्ध दिये थे और यह कहते चलते हुए । आप अपने यहाँ चले जाएँ । महात्मा जी जो कुछ भी किये-कराये सत्संग कथा-प्रवचन  वह अपने यहाँ चले जाएँ । हमारा कुछ ऐसा  मकसद नहीं है । हमारा मकसद तो है कि आप देखेंगे--
साधु चरित शुभ चरित कपासू   ।  
निरस विशद गुनमय  फल जासू ।।    
        यह जो सत्संग चल रहा है आपके बीच में, ये साधुरित जैसे है । ये साधु चरित के विषय में है-- साधु चरित कैसा होता है ? कपास जैसा नीरस। कोई रस आपको नहीं मिलेगा। जो कुछ भी किया जाएगा इसमें कोई रस आपको नहीं मिलेगा। लेकिन ‘‘विशद गुनमय फल जासू’’  इसमें जो है वृहद-बिशद-बहुत ही बहुत विशालकाय आपको सद्गुण मिलेंगे, इसमें महत्ता मिलेंगे । जैसे कपास है-- उसके सूत की तरह कष्ट झेल करके, आपके हमारे सबके तन को ढकने का काम करता है । रूई फूट करके, पहले तो अपने आप फूट पड़ता है तब उसमें से रूई तैयार होता है । रूई को धुन करके उसको फ्रेस बनाया जाता है, उसको ताना-बुना करके  सूत बनाया जाता है । 
बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की ऽ ऽ ऽ   जय ! 
       तो इस प्रकार से नाना प्रकार के कष्ट झेल करके भी कपास सूता तैयार होता है । ठोक-ठका करके कपड़ा बनता है, कपड़ा बनने के बाद कट-पिट करके और सिला-गुथा करके हमारा वस्त्र तैयार होता है । उसी तरह से वास्तव में सन्त-महात्मा, साधु पुरुष जो होते हैं नाना प्रकार से सामाजिक कष्ट-यातनाओं को आप ही के विरोधों का, आप ही के नाना प्रकार के लांछनों का, आप ही के नाना प्रकार के आरोपों का सब कुछ कष्ट सहन करने के बावजूद भी, उसका एक ही लक्ष्य है, आप सभी का कल्याण-आप सभी जीवों का उद्धार । साधु पुरुष जो होता है-सज्जन पुरुष जो होता है उसका एकमेव एक ही लक्ष्य है जीवों का उद्धार - जीवों का कल्याण । अब इस उद्धार और कल्याण के बदले आप सब क्या देते हैं -- हँसी, विरोध, नाना प्रकार के लांछन, आरोप-प्रत्यारोप । ये तो आप सभी के अपने भाव-विचार हैं । लेकिन आपके समस्त इन सारे लांछनों-आरोपों और जो कुछ भी निन्दा-शिकायत करते हैं, इसकी परवाह किये बगैर जो साधु पुरुष होता है, जो सज्जन पुरुष होता है, जो ज्ञान दाता होता है उसका एक ही लक्ष्य है; वह क्या है ? जीव का उद्धार, जीव को मोक्ष और जीवन को यश-कीर्ति । एक ही लक्ष्य है । क्या आप कहते हैं, क्या आप करते हैं; इससे कोई खास मतलब नहीं है ।  क्या आप को करना चाहिये, क्या आपको होना चाहिये--हम उसमें भगवत् कृपा विशेष से कहाँ तक सहायता आपका कर सकते हैं, भगवान् के तरफ से कहाँ तक आपको पहुँचा सकते हैं, भगवान् से मिलन में कहाँ तक हम आपकी सहायता कर-करा सकते हैं केवल इतना ही से मतलब है वह हम करें । भगवत् कृपा विशेष से इतना ही लक्ष्य है । 
        मेरे पास भगवत् कृपा से ज्ञान की प्राप्ति होती है । उस ज्ञान से मुझे सब कुछ जो जैसा है दिखलाई देता है । जड़ जगत् भी दिखलायी देता है, शरीरों का रहस्य दिखलायी देता है । जीव क्या है ? जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं क्या है --- ये स्पष्टतः जानने-देखने को मिलता है । आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-सोल-नूर-स्पिरिट-सः ज्योति-शिवोऽहँ-सोऽहँ- ह ्ँसो ज्योति ये क्या है --- रहस्यों सहित यह दिखलायी देता है । परमात्मा-परमेश्वर- परमब्रह्म-खुदा-गाॅड-भगवान्-अकालपुरुष-अरिहन्त ये सब क्या हैं ? तीर्थ-तीर्थंकर ये क्या हैं ? आदि आदि सब दिखलायी देता है । यह सब भगवत् कृपा और उस तत्त्वज्ञान की बलिहारी है । आप हम सब के बीच उसी ज्ञान को ले करके हम उपस्थित हुये हैं। मेरे पास और कुछ नहीं है एक ज्ञान है ज्ञान । मेरे पास कुछ नहीं है--एक ज्ञान है । उसी ज्ञान को ले करके हम आपके बीच उपस्थित हुए हैं । वह ज्ञान क्या होता है ? क्या है वह   ज्ञान ? सत्यज्ञान कह लीजिये । क्योंकि बिल्कुल सत्यता पर आधारित है । हर अंश उसका सत्यता पर आधारित है । कहीं भी किसी भी अंश को जानने-देखने के पश्चात् आपको अंगुली उठाने का मौका नहीं मिलेगा कि इस अंश में जो है, यहाँ पर इसमें संदेह चाहे शंका है अथवा यह असत्य है । हर अंश में हर प्रकार से परिपूर्णतः यह जो है सत्य का विधान है; इसीलिये इसको ज्ञान कह दीजिये-- पूर्ण ज्ञान कह दीजिये--परम ज्ञान कहिए--तत्त्वज्ञान कहिये-- ये सब एक ही के संकेत और पर्याय हैं । ‘तत्त्वज्ञान’ वास्तव में इसका वास्तविक नाम है । हम जिस ज्ञान को आपको जनाने के लिये आये हैं वह वास्तव में तत्त्वज्ञान है तत्त्वज्ञान । तो आप सभी के बीच हम तत्त्वज्ञान को लेकर उपस्थित हुए हैं। तत्त्वज्ञान क्या है ? तत्त्व और ज्ञान दो शब्द हैं । ऐसा ज्ञान जिसमें तत्त्व की यथार्थतः जानकारी मिले । ऐसा ‘ज्ञान’ जो ‘तत्त्व’ को जनावे, ‘तत्त्व’ से जनावे, ‘तत्त्व’  को दिखावे और आप-हम सबको ‘‘तत्त्वमय ही सम्पूर्ण जगत् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है--एकमेव तत्त्वमय ही है’’ इसका बोध करावे । इस ‘ज्ञान’ मात्र को ले करके हम आपके बीच उपस्थित हुए हैं । उसी ‘तत्त्वज्ञान’ की विशेषता है--उसी तत्त्वज्ञान की देन है, जिस तत्त्वज्ञान के विषय में आप सभी के बीच चर्चा कर रहे हैं --उस तत्त्वज्ञान की देन है, उस तत्त्वज्ञान का ही प्रभाव है कि जो कुछ भी आप यहाँ के पर्चे-पॅम्फ्लेट्स में देख रहे होंगे, जो कुछ भी यहाँ का प्रचार-प्रसार देख रहे होंगे, जो कुछ भी इस शरीर के वाणी, बोल-चाल व्यवहार देख रहे होंगे; यह सब उसी तत्त्वज्ञान की देन है जो भगवत् कृपा रूप में प्राप्त है । उसी तत्त्वज्ञान की देन है जिसके बल पर, जिसके भरोसे, जिसके माध्यम से आप सभी के बीच में चुनौतीपूर्ण उद्घोषणा की जा रही है । चुनौतीपूर्ण उद्घोषणाएं दी जा रही हैं कि आपको निश्चित समय के अन्तर्गत, आपको जो भी समय दिया जा रहा है पाँच दिन का सत्संग कार्यक्रम, दो दिन पात्रता-परीक्षण, दो दिन शास्त्रीय ज्ञान और अंतिम  तीन दिन में पहले दिन जीव का दर्शन, दूसरे दिन आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म का दर्शन और तीसरे दिन परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म का आमने-सामने बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन निश्चित ही होगा । 
        ये तत्त्वज्ञान के प्रभाव की बात की जा रही है । उसी तत्त्वज्ञान के बल पर ये बातें आपके सामने रखी जा रही हैं । ‘‘तत्त्वज्ञान’’ जिस समय आप उसकी यथार्थता को जानना शुरू कर देंगे, जिस समय आप तत्त्वज्ञान से गुजरना शुरू कर देंगे अपने आप में आप पहले दिन ही उसकी महिमा यदि गाने लगें,उसकी यथार्थता को बताने लगें,उसकी सच्चाई को सुनाने लगें तो आपके दिल-दिमाग में अभी शायद मेरे समझ से वह कैपेसिटी, वह क्षमता नहीं है कि सहजतापूर्वक इसको ग्रहण-ग्रैस्प कर सकें । सीधे एक अतिशयोक्ति, अतिशयोक्ति भी नहीं, अति अतिशयोक्ति भी कह दिया जाय तब भी कोई हास्यास्पद नहीं होगा, ऐसा लगने लगेगा। इसलिये दो-तीन दिन सत्संग सुन लीजिये तब तत्त्वज्ञान की वास्तविक स्थिति का वर्णन आपके सामने रखा जाऐगा । अभी तो उसके विषय में सिर्फ इतना ही बतलाऊँगा कि तत्त्वज्ञान इस सम्पूर्ण ब्रम्हाण्डों का सबसे कम्पीटेण्ट, सबसे सक्षम विधान है । सबसे परिपूर्णतम विधान है । तत्त्वज्ञान  के माध्यम से आप परमाणु से परमेश्वर तक, आप एटम से आलमाइटी तक, आप अणु से अल्लातऽला तक, आप सेल से सुप्रीम तक, हर चीजों को यथार्थतः इस ब्रह्माण्ड में जो जहाँ, जैसा और जितने में है, आप मात्र यथार्थतः जानेंगे नहीं; आप मात्र यथार्थतः जान ही नहीं लेंगे, प्रत्यक्षतः देखेंगे भी । और मात्र जान-देख ही नहीं लेंगे जादू-मन्तर की तरह से--उसे समझ-बूझ सहित, जाँच-परख सहित, सद्ग्रन्थों के प्रमाणों सहित आप हर प्रकार से उसकी अनुभ्ूाति और बोध जो कुछ भी उसमें है सहजतापूर्वक प्राप्त करेंगे। 
         तत्त्वज्ञान में कोई कर्म नहीं, कोई क्रिया नहीं, किसी प्रकार की कोई बाह्य विषय-वस्तुओं की आवश्यकता नहीं । यह एक प्रकार का परिपूर्णतम ‘‘ज्ञान विधान’’ है। कुछ लोग इसका मनमाना अर्थ करना शुरु कर देते हैं--खींचतान कर पंच तत्त्व-पंच, तत्त्व जो आकाश, वायु, अग्नि, जल और थल है न, इसी पंच तत्त्व के विषय में कह रहा है इसी पंच तत्त्व के विषय में ।  लेकिन यह ज्ञान जो तत्त्वज्ञान है ये इस मात्र जड़ रूप जड़ पदार्थ के अन्तर्गत परिभाषा में आने वाला इस आकाश, वायु, अग्नि, जल और थल मात्र का नहीं है । यह तो उससे बहुत नीचे स्तर पर है । यह उस तत्त्व का ज्ञान है जो सृष्टि के पूर्व में  भी था, जो इस सृष्टि के उत्पत्ति के पूर्व में भी था, जिसे इस सृष्टि के समाप्ति के पश्चात् भी रहना है । हम उस ‘तत्त्वज्ञान’ की बात करते हैं । उस परमतत्त्वम्  के विषय में जनाने की बात कर रहे हैं, दिखाने की बात कर रहे है। 
बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की  ऽ ऽ ऽ  जय !  
      उस तत्त्वज्ञान के विषय में  जो कुछ भी आप सभी के बीच बोलेंगे, ये सात दिन जो कुछ भी सात दिनों में प्रेक्टिकल करायेंगे, सब कुछ भगवत् कृपा के अन्तर्गत ‘तत्त्वज्ञान’ के प्रभाव से है और कुछ नहीं । मेरे पास तत्त्वज्ञान के सिवाय कुछ है ही नहीं--कुछ भी नहीं है । लेकिन साथ-साथ  एक और बात बता देना अनिवार्य लग रहा है कि ब्रह्माण्ड में ‘तत्त्वज्ञान’ से हट कर कुछ है भी नहीं । मेरे पास  ‘तत्त्वज्ञान’ के सिवाय कुछ नहीं है । और इस ब्रह्माण्ड में ‘तत्त्वज्ञान’ से बाहर कुछ है भी नहीं। मेरे पास ‘तत्त्वज्ञान’ से पृथक् कुछ नहीं है, एकमेव ‘तत्त्वज्ञान’ है लेकिन उस तत्त्वज्ञान की क्या विशेषता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ‘तत्त्वज्ञान’ से बाहर कुछ नहीं है । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी उस ‘तत्त्वज्ञान’ के अन्तर्गत ही है । तो इस प्रकार से आप सभी  इस ‘तत्त्वज्ञान’ के विषय में, उसके सामने कुछ भी असम्भव नहीं । कुछ भी असम्भव नहीं ।
      ‘तत्त्वज्ञान’ एक ऐसा विधि-विधान है -- अब सोचें कि जिसमें परमाणु से परमेश्वर तक परमेश्वर तक भी उसमें अपनी क्षमता-शक्ति सहित दिखलाई देता है । परमेश्वर तक भी उस ‘तत्त्वज्ञान’ के अन्तर्गत अपनी क्षमता-शक्ति सहित दिखलायी देने लगता है। इस संसार को कौन समझे, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड दिखलायी देने लगता है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड।  फिर हम इससे आगे तत्त्वज्ञान की विशेषता क्या कहें । 
      आज आप हम सभी थोड़ा सत्संग और सन्त के विषय में थोड़ा सुना जाए। सत्संग कौन कर सकता है ? सन्त कर सकता है । हर कथा-प्रवचन सत्संग नहीं कहलाता है । कुछ कथा है, कुछ प्रवचन है । जब हम किसी कथानक को  ले करके राम जी की महिमा का गान कर रहे हैं, राम जी और सीता जी को ले करके अयोध्या, जनकपुर अथवा वन के अन्र्तगत जो कुछ भी बातें हैं हम उनको ले करके वर्णन कर रहे हैं । सब झूम-झूमा रहे हैं। हम राम जी के और सीता जी के फुलवारी का वर्णन कर रहे हैं, हम उस धनुष सभा का वर्णन कर रहे हैं, हम विवाह का वर्णन कर रहे हैं और खूब अच्छी तरह से झूम-झूमा रहे हैं । ये सब कथा-प्रवचन में आता है। ये सब कथा है । जब हम किसी का कहा हुआ, किसी का लिखा हुआ कथानक उसी को सूझ-बूझ सहित थोड़ा नमक-मिर्च मिलाते हुए कहते-सुनते कहलाते हैं--ये कथा है। 
       जब हम ध्यान से सम्बन्धित-अध्यात्म से सम्बन्धित कोई जानकारी देते हैं तब वह प्रवचन है; जो किसी के द्वारा जनाया-बताया जा चुका है, जो कोई बोल चुका है, जो प्रवचन रख चुका है; उसको ले करके ग्रन्थों से हम आपके बीच रख रहे हैं तो वह सत्संग नहीं कहलाया जा सकता । वह प्रवचन है प्रवचन, कथा है प्रवचन है । 
        तो प्रवचन वह है जो किसी दूसरे के बचन को ले करके बोला जाय । जो ग्रन्थों की वाणी ले करके बोला जाए । सत्संग वह है जो सत्य के विषय में बोला जाए, मात्र महिमा गुणगान नहीं, मात्र कृति-लीला गान नहीं । सत्य क्या है ? कहाँ रहता है ? कैसा है ? मिल भी सकता है या नहीं ? यदि मिलेगा तब उसे कैसे जानेंगे ? कैसे परखे-पहचानेंगे ? कैसे देखेंगे ? क्या हमें भी मिल सकता है ? क्या हम भी उसके साथ हो-रह सकते हैं ? मुझे मिलेगा तो कैसेे  पहचानूँगा ? मैं उसके साथ कैसे रहूँगा ? इन सारी बातों की जानकारी जिस विधान के अन्तर्गत प्राप्त हो रहा हो वह विधान सत्संग है । उसी विधान को ले करके हम आप सभी के बीच उपस्थित होने आये हैं । कोई जरूरी नहीं हमारी बातें आप सभी को बहुत अच्छी ही लगें लेकिन यह निश्चित ही है कि ये सत्य यही होंगी। यह भगवत् कृपा है, क्योंकि इसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है, न कुछ मैंने कर्म किया, न कुछ मैंने क्रिया किया, न कोई मैंने जप किया, न कोई तप किया, न कोई व्रत किया । कुछ नहीं-कुछ नहीं ये सब भगवत् कृपा है । ये भगवत् कृपा है इस शरीर पर -- ये तत्त्वज्ञान की देन है इस शरीर पर कि कृपा करके इसे कैसे अपना लिया । 
          हम तो आप सभी के बीच इसलिये घूम रहे हैं कि आप सभी क्यों नहीं अपने को उस परमप्रभु के चरण-शरण में डाल देते हैं । झूठ-मूठ में अपने जीवन को रोटी-कपड़ा में बेच करके कष्ट और अभाव में गुजरने में लगे हैं । झूठ-फरेब और बेईमानी के जीवन जीने में लगे हैं । अपने जीवन पर भरोसा नहीं, परमप्रभु पर भरोसा नहीं । अपने जीवन में कमाई क्या कर रहे हैं -- झूठ-फरेब, धूर्तता, बेईमानी । सोचिए तो सही क्या कमाने में  लगे हैं ? ये जीवन कितना पवित्र है, ये जीवन कितना उच्च है । पूरे ब्रह्माण्ड में, पूरे सृष्टि में ये चैरासी लाख योनियों में सर्वोत्तम योनि है- सर्वोत्तम योनि, सर्वश्रेष्ठ योनि है-सर्वश्रेष्ठ योनि। भगवान् की जो ये मायामयी कृति है सृष्टि-ब्रह्माण्ड, इस पूरी मायामयी सृष्टि के अन्तर्गत मानव योनि सर्वोत्तम कृति है सर्वोत्तम । इस सर्वोत्तम कृति - सर्वोत्तम उपलब्धि को उपलब्ध करके यदि आप सब इस जीवन के, इस मानव योनि के सर्वोत्तम उपलब्धि रूप मोक्ष को प्राप्त नहीं किये--मोक्ष को उपलब्ध नहीं किये तो और चाहे जो कुछ भी किये हों सब व्यर्थ है। यदि जीवन में आपने मोक्ष को प्राप्त नहीं किया -- मोक्ष को आपने उपलब्ध नहीं किया तो चाहे जो कुछ भी किये हों, जितना भी उपलब्ध किये हों-- सब व्यर्थ है व्यर्थ । आपका जीवन अकारण चला जाएगा अकारण । क्योंकि जीवन का एकमेव उद्देश्य, एकमेव लक्ष्य मोक्ष है। और उद्देश्य ही नहीं प्राप्त हुआ, लक्ष्य ही नहीं प्राप्त हुआ  और प्राप्त करके करेगा ही क्या ? प्राप्त करके आप करें भी  क्या ? फिर वही चैरासी लाख योनियाँ पड़ी हुई हैं, भ्रमण कीजिये।  जन्मिये - कीजिये - भोगिये-मरिये । जनम-करम-भोग-मरण, जनम- करम-भोग-मरण, जनम-करम- भोग-मरण । ऐसे विधान से गुजरते रहिये। कब तक ? चैरासी लाख । फाइनल नहीं है कि चैरासी लाख भोगने के बाद आपको मुक्ति-अमरता-मोक्ष मिल जाएगा। मोक्ष पर्यन्त चाहे जै बार चैरासी लाख का चक्कर काटना पड़े, मोक्ष पर्यन्त जितने बार आपको चैरासी लाख योनियों का चक्कर काटना पड़े; मोक्ष पर्यन्त आपको चक्कर काटते ही रहना पड़ेगा । आपके नकार देने से, अरे चलो ये सब कल्पना की चीज है, कौन अमर लोक-परमधाम देखा है ? कौन नर्क-स्वर्ग देखा है ? कैसा परमधाम ? कैसा   अमरलोक ? कैसा ब्रह्मलोक ? ये सब कल्पना कर-करा करके, ये सब धन्धा कर-करा रहे हैं। ऐसा कह देने से संतुष्टि मिल जाती है ? ऐसा कह देने से प्राप्ति हो जाती है ? ऐसा कह देने मात्र से मुक्ति हो जाती है ? ऐसा कह देने मात्र से उपलब्धि हो जाती है ? कुछ नहीं। थोड़ी देर के लिए एक नासमझदारी का, एक अज्ञानता का, एक बिल्कुल ही अनजानता का , थोड़ी सी उसके अन्दर होने-रहने वाली मामूली सी शान्ति भी नहीं कहलाएगी, मूर्खतापूर्वक जो है, जढ़तापूर्वक जो है, स्थिरत्त्व खिल जाऐगा। इसलिए जानना चाहिए । हर चीजों को जानने का जब प्रयास कीजियेगा तो दिखलायी देगा कि सब कुछ था, है और यदि आप-हम प्रयास करें तो जान सकते हैं -- जड. जगत् - शरीर, जीव जगत्, आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म और ब्रह्म लोक तथा परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म और परमधाम ये सब हैं । ये सब हैं । तीसरी बार संकेत कर रहा हूँ कि ये सब हैं।  और आप  इनको यथार्थतः जान और देख सकते हैं । बशर्ते कि इसकी पद्धति आपके पास हो । बशर्ते कि इसका विधान आपके पास हो । इसकी यथार्थतः जानकारी आपके पास हो। कोई ऐसा ज्ञाता आपके पास हो जो इन सारी जानकारियों को अपने पास रखता  हो । ऐसा ज्ञाता तो समाज में, जब समाज में आपके पास मिलता है, आप सभी उसकी हँसी उड़ाते हैं। अपनी कमी को, अपनी समझदारी को उसी पर झुठला करके अपने आपको होशियार-बुद्धिमान समझ करके, उसी में गिरे पड़े अपने को गुजार देते हैं । हम तो आप सभी बन्धुओं को यह जनाने और बताने आये हैं कि ये सारी चीजें जानने की हैं, सब चीजें देखने की हैं । जीव, ईश्वर और परमेश्वर तीनों के तीनों ही जानने-देखने की चीज है, जाँच-परख की चीज है और अलग-अलग। शरीर से अलग जीव को जानिये-देखिये, उससे सम्बन्धित  सम्पूर्ण जानकारियों को प्राप्त कीजिये । शरीर और जीव से अलग आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-सोल-नूर-स्पिरिट - शिवोऽहँ- हँ सो - सः ज्योति जानिये- देखिये , उससे सम्बन्धित अन्य विधानों को भी जानिए । उस लोक को भी जानिये, शिव लोक-ब्रह्म लोक और शिव-शक्ति को जानिए। उसका साक्षात्कार कीजिए-देखिए और तत्पश्चात् निर्णय लीजिए । परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म को खुदा-गाॅड-भगवान् को - परमतत्त्वं रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप भगवत्तत्त्व को-अद्वैत्तत्त्व को जानिए । उसकी यथार्थता को देखने का प्रयास कीजिए । और बात-चीत सहित, जाँच-परख सहित उसके अनुसार होने-रहने का (सत्य ही हो तब होने-रहने का) प्रयास कीजिये । अभी हम आपको इतना ही सिर्फ कहेंगे कि ये सारे विधान सत्य हैं जो कुछ आप पर्चा में पढ़े होंगे, जो कुछ भी यहाँ सुनेंगे, इसकी सच्चाई आपको अन्तिम समय में हर चीज सामने आपकोे दिखलायी देगी कि जो कुछ भी मंच से कहा गया, जो कुछ भी पर्चे से आपको जनाया गया, जो कुछ भी आपके सामने शास्त्रों से बताया गया (जीव,ईश्वर और परमेश्वर, मुक्ति-अमरता) ये सब आपको जानने-देखने-अनुभव और बोध करने को मिलेंगे। सत्य-बिल्कुल सत्य-परम सत्यता के अन्तर्गत कहीं भी, कहीं भी आपको मीन-मेख निकालने का मौका नहीं मिलेगा । हर प्रकार  के प्रमाणों से प्रमाणित -- वेद से प्रमाण ले लीजिये, उपनिषद् से प्रमाण ले लीजिये, र्कुआन से प्रमाण ले लीजिये, गीता से प्रमाण ले लीजिये, रामायण से प्रमाण ले लीजिये, बाइबिल से  प्रमाण ले लीजिंये, र्कुआन शरीफ से प्रमाण ले लीजिये, गुरुग्रन्थ साहब से प्रमाण ले लीजिये। इतना ही नहीं आप जिस धर्म-सम्प्रदाय के हों--आप जैनी हो--जैन सम्प्रदाय के हों तो आप अपने जैन सम्प्रदाय के जैन धर्म के अन्तर्गत प्रयुक्त किताब को लाइये हम उसी में से प्रमाण को पेश करते हैं । दिखाने के बाद और वास्तव में जो तीर्थंकर महावीर जी हैं उनके जो अभीष्ट ‘‘अरिहन्त’’ है, वह आपको मिल रहे हैं या नहीं मिल रहे हैं, जिसको पाने के लिए स्वयं तीर्थंकर महावीर जी यानी जो सबकुछ भी आपके समक्ष लक्ष्य विधान रखा, आप उन्हीं से कस लीजिये । वे कोई गलत उपदेश थोड़े दे गए हैं । रही बात आप उसे कितना समझ रहे हैं, आप उसे कितना पकड़ रहे हैं, आप कितना उसे ग्रहण कर पा रहे हैं यह आपकी महत्ता पर है । हम तो कह रहे हैं कि आप जैनी हैं बैठिये, सुनिये, जानिये, देखिये और अपने ही यानी तीर्थंकर महावीर जी के ही उपदेशों से ही तुलना कीजिए । उसी से प्रमाण लीजिये कि आपको वास्तव में जीव, ईश्वर और परमेश्वर साक्षात् दर्शन के लिए जो मिल रहा है, वह ही है या नहीं । ऐसा कोई सद्ग्रन्थ दुनिया का नहीं है जो इस ‘‘तत्त्वज्ञान’’ को समर्थन न दे। ऐसा कोई सद्ग्रन्थ किसी भी सम्प्रदाय-धर्म का दुनिया में नहीं है जो आपके इस ‘‘तत्त्वज्ञान’’ को समर्थन न दे । कोई जरूरी नहीं है कि आप जबर्दस्ती किसी ग्रन्थ विशेष  को मानने के लिए बाध्य होइये । जिस ग्रन्थ पर भी आपकी आस्था हो, जिस सद्ग्रन्थ पर भी आपकी आस्था हो, उसी का प्रमाण प्रस्तुत किया जाएगा  और उस ग्रन्थ के किसी अन्य सामान्य प्रकरण से नहीं,  उस ग्रन्थ का जो सर्वोच्च प्रकरण होगा, उस ग्रन्थ में जो सर्वोच्च मान्यता होगी, उस मान्यता और उस प्रकरण से प्रमाणित होगा। किसी भी सद्ग्रन्थ के अन्तर्गत के स्थान पर, सर्वोच्च मान्यता के स्थान पर, सर्वोच्च स्वीकारोक्ति के स्थान पर, जो मान्यताएँ होंगी उसी में से इस ‘‘तत्त्वज्ञान’’ का प्रमाण प्रस्तुत किया जाएगा। 
       हमारा निवेदन इतना ही है, हम आपके छोटे भाई हैं । यह शरीर जो देख रहे हैं, धरती फोड़ करके और आसमान तोड़ करके नहीं आयी है । आपके परिवार से आयी है। आपके परिवार के बीच की है । यह आपका भाई है, भगवत् कृपा  से यह ‘तत्त्वज्ञान’ इस शरीर के साथ है । आप अपने भाई-बन्धुओं के बीच यह शरीर जो है, उस ‘तत्त्वज्ञान’ को जनाते हुए, उस ‘तत्त्वज्ञान को दिखाते हुए उस ‘तत्त्वज्ञान’ के माध्यम से परमप्रभु का दर्शन कराते हुए  आप सभी को इसका हिस्सेदार कहिये; आप सभी से इससे युक्त करना कहिये, इसके लिए ये शरीर आपके बीच आयी है । अपने बन्धुओं के बीच आयी है । हाँ, हम एक बार नहीं बार-बार--हजार बार रोज कहेंगे कि आप किसी भ्रम-भटकाव के शिकार मत होइये । आप ऐसे अपने परम भाग्यशाली समय को खोने की कोशिश मत कीजिएगा नहीं तो पछतावा के सिवाय और कुछ हाथ नहीं लगेगा। जो कुछ भी कहा जा रहा है हर स्तर पर सत्यता पर आधारित है । आप जब भी किसी अंश को चाहें, आप उसे ले सकते हैं । उसकी प्रमाणिकता माँग सकते हैं । आप उसका सत्यापन-समर्थन माँग सकते हैं--करवा सकते हैं । इसलिए हम बार-बार कहेंगे कि जानने का कोशिश कीजिए उस परम सत्य को, उस ‘परमतत्त्वम्’ को, उस अरिहन्त को, उस अकालपुरुष को, उस सत्पुरुष-परमपुरुष को जो सृष्टि के पूर्व भी था और जिसे सृष्टि के पश्चात् भी रहना है । जानिए ! जानिए और देखने का प्रयास कीजिए । ये सुन्दर-सुनहरा समय है । ये परम भाग्यशाली समय है । ऐसा समय बार-बार क्या कहूँ, युग-युग में, युग-युग में एक बार आता है--युग-युग में एक बार । युग-युग में--युग-युग में एक बार आता है --एक बार । इसलिए हम इतनी बात रखेंगे कि जानिये--यथार्थतः जानिये, समझदारी के साथ जानिये,देखिए । सूझ-बूझ सहित देखिए-परखिए जाँच कीजिए । जाँच-परख करने के पश्चात् बातचीत कीजिए, परिचय-पहचान प्राप्त कीजिये। सत्य ही हो और हर प्रकार से सत्य ही हो, हर प्रमाणों से प्रमाणित ही हो और सत्य ही हो तो स्वीकार कीजिये । किसी भी प्रकार से कभी भी किसी भी प्रकार की असत्यता का कहीं पर भी संकेत मिल रहा हो, संकोच मत कीजिए । सीधे उसे रख दीजिए कि यहाँ यह गलत है । यानी ऐसा कैसे कह रहे हो, जीव, ईश्वर और परमेश्वर का दर्शन हो जाएगा ?
     भइया मेरी गारन्टी इस जीव, ईश्वर और परमेश्वर के दर्शन, अद्वैत्तत्त्वम् बोध-एकत्त्व बोध रूपी मुक्ति-अमरता के बोध को--इतना ही सत्य है । और सब बातें, न तो मैं भाषा जानता हूँ , मुझे और कोई भाषा अरबी-फारसी वगैरह तो आता नहीं है, अँग्रेजी-संस्कृत भी नहीं आती है, शुद्ध हिन्दी भी नहीं आती है; क्योंकि  मैं कोई भाषा नहीं जानता हूँ । ये जो दो-चार शब्द बोल रहा हूँ, आप सभी से सुन-सीख करके बोल रहा हूँ । इस भाषा में क्या सच्चाई है ? कितनी सच्चाई है ? इसकी भी मैं गारन्टी नहीं दे सकता । इसकी गारन्टी अवश्य है कि जीव, ईश्वर और परमेश्वर का अलग-अलग जो दर्शन  सम्बन्धी बात की जा रही है, मुक्ति-अमरता के बोध की जो बात की जा रही है उसकी पूरी की पूरी गारन्टी है कि सत्य ही है, होता है और जिज्ञासु भगवत् समर्पित-शरणागत भक्तों को होगा भी, होगा भी । इसमें किसी भी प्रकार की कोई, बाहरी विषय-वस्तुओं की कोई आवश्यकता नहीं । कोई इसमें धन-दौलत का चढ़ावा नहीं, कोई दान-चन्दा नहीं, फल-मिष्ठान का इसमें चढ़ावा नहीं, कोई रुपया-पैसों का इसमें चढ़ावा नहीं; इसमें चढ़ावा है जिज्ञासा, श्रद्धा, भगवंत् समर्पण-शरणागत भाव । यही इसकी कीमत है, यही इसकी फीस सदा से रही है और आज भी है और जब कभी भी भगवत् प्राप्ति होती होगी--यही इसकी कीमत-फीस रहेगी--उत्कट जिज्ञासा, श्रद्धा, और भगवत् समर्पित-शरणागत भाव की। कभी भी भगवत् प्राप्ति इन्हीं विधानों पर हुई है । इसमें न कोई रुपया-पैसा है, न कोई धन-दौलत का चढ़ावा, न कोई फल-मिष्ठान, न किसी भी प्रकार के अन्यथा धूप-अगरबत्ती का चढ़ावा है । कोई कर्म-क्रिया इसमें नहीं है, बस कृपा का विधान है कृपा का ।  यह तो भगवत् कृपा से प्राप्त होता है । भगवत् कृपा प्राप्त को प्राप्त होता है । किसी तप, जप, व्रत, नियम, पुण्य के आधार पर नहीं । ये बिल्कुल ही भगवत् कृपा के आधार पर प्राप्त होता है । 
बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की ऽ ऽ ऽ  जय !