भ्रमित आध्यात्मिक योगी-महात्मा

भ्रमित आध्यात्मिक योगी-महात्मा, संत 
नहीं ‘‘वही मैं हूँ’’- सोऽहँ वाले सभी 
आध्यात्मिक योगी-महात्मा भ्रमित हैं- 
        सद्भावी सत्यान्वेषी भगवत् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! यह मुमकिन है कि आज के सत्संग से- आज के मुझ सन्त ज्ञानेश्वर के बचन से सोऽहँ (वही मैं हूँ) वाले भ्रमित अध्यात्मिक-योगी-महात्मन् बन्धुओं तथा उनके अनुयायियों को भ्रमित होने-भ्रम में अटके-लटके रहने के कारण कष्टकर लगे, दुःखदायी लगे-चुभने वाला लगे, जिन्हें ऐसा लगता हो उन बन्धुगण से सर्वप्रथम मेरा अनुरोध है कि वे अपने सद्भाव एवं सद्विचार से मुझे सत्य बोलने-सत्य कहने-यथार्थतः जानकारी देने में अपने कष्टों-दुखों एवं चुभनों को भूलकर यथासम्भव यथायोग्य सहयोग दें । हाँ, तो श्रोता बन्धुओं ! आयें मूल बात पर। ऐसा जानने-समझने, देखने-बूझने-पहचानने में आता है कि आध्यात्मिक-योगी-महात्मागण परमात्मा-खुदा-गाॅड-भगवान्-परमेश्वर-परमब्रह्म- अल्लातऽला आदि नाम वाले तथा आत्मतत्त्वम् शब्द रूप अलिफ लाम् मिम् (अलम्) रूप गाॅड (GOD) रूप वाले सर्वोच्च-सर्वोत्तम-सर्वश्रेष्ठ-सर्वोत्कृष्ट सत्ता-शक्ति अथवा परमभाव-प्रभाव वाले परमप्रभु को तो जाना-देखा,पाया-पहचाना नहीं; थोड़ा बहुत जाना-देखा-पाया-पहचाना उससे उत्पन्न हुई आत्मज्योति रूप आत्मा को; ब्रह्म ज्योति रूप ब्रह्म को, दिव्य या जीवन ज्योति रूप ईश्वर को, परमप्रकाश और सहज प्रकाश रूप आत्मा को, डिवाइन लाइट रूप सोल को, आलिमे नूर को, आसमानी रौशनी को, नूरे इलाही को, स्वयं ज्योति रूप शिव को, भर्गो ज्योति रूप शक्ति को परन्तु नाजानकारी एवं नासमझदारी वश उसी ज्योति-लाइट, नूर को ही आत्मतत्त्वम्-अलम् (अलिफ लाम् मिम्)-गाॅड (GOD) घोषित कर दिया। असलियत तो उन महात्मन्-प्राफेट-पैगम्बर बन्धुओं को परमात्मा-अलम्-गाॅड की यथार्थतः जानकारी एवं प्रत्यक्षतः दर्शन तो था नहीं और न ही जीव-सेल्फ-रूह की ही यथार्थतः जानकारी एवं प्रत्यक्ष दर्शन-परिचय-पहचान था; मात्र-बीच-बीच वाला ज्योति-नूर-लाइट को ही वे महानुभाव गण जान-देख पाये थे । अब वे सोच ही नहीं पाये कि जीव, आत्मा, परमात्मा; रूह-नूर-अल्लातऽला (अलम्)-सेल्फ-सोल-गाॅड में तीनों तीन है या एक ही। निम्न-मध्य-सर्वोत्तम रूप कोई पृथक्-पृथक जानकारी है या नहीं; यह सब तो ये महानुभाव जान नहीं पाये जिससे वे भ्रमित हो गये और तीनों का नाम-रूपों का आपस में खिचड़ी पकाने लगे । अपने अनुयायियों को भी तीनों का रहस्य नहीं समझा सके । ये योगी-महात्मा, प्राफेट-पैगम्बर मात्र आध्यात्मिक थे तथा है भी । इन महानुभावों का कत्र्तव्य था सांसारिक माया जाल रूपी शारीरिक-जिस्मानी भाव से जीव-रूह-सेल्फ का जिस्म-शरीर-बाडी से अनुभूति-रिअलाइज कराकर आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म या नूर या सोल से मिलाकर पुनः परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म या अल्लातऽला या गाॅड के - एकमात्र उस भगवान् खुदा-गाॅड को जो अद्वैत्तत्त्व बोध रूप-वन्ली वन गाॅड-‘ला’ इलाह इल्ला हुव को जानने-दर्शन करने-पाने पहचानने तथा मुक्त और अमर बनने हेतु एकमात्र उस एक का ही पूजा-आराधना, नमाज बन्दगी, प्रेयर आदि करने में ही लगाना, परन्तु मुहम्मद साहब ही मात्र अपने कत्र्तव्य का उचित रूप में पूरा किये और शेष सभी भ्रमित होकर अपना ही महिमा-बड़प्पन गाने-गवांने लगे । ये लोग संत तो नहीं ही थे, शुद्ध योगी महात्मा भी नहीं रह सके, भ्रमित हो गये । 
   सद्भावी सत्यान्वेषी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! तत्त्वज्ञानी-तत्त्वदर्शी संत के बाह्य या भौतिक या शारीरिक परिचय-पहचान को पूछने-जानने-समझने का कभी भी कोशिश न करें- कभी भी प्रयत्न नहीं करें क्योंकि संत जाति, कुल-वर्ग-सम्प्रदाय आदि भेद परिचय भाव मूलक बात-व्यवहार, परिचय-पहचान से सर्वथा परे होता है । तत्त्वदर्शी संत पुरुष का परिचय-पहचान एकमात्र उनके ज्ञान-भगवद्ज्ञान-तत्त्वज्ञान- सत्यज्ञान ही होता है, ठीक ही कहा गया है कि- ‘जात न पूछो संत की, पूछ लीजिये ज्ञान।’ अर्थात् ‘संत-सत्पुरुष से (परिचय-पहचान हेतु) जात नहीं पूछना चाहिये, उनका ज्ञान पूछना चाहिये ।’ सत्पुरुष  संत का तो जाति, कुल, धर्म आदि सब कुछ एकमात्र भगवान् ही होता है जिसका यथार्थतः ज्ञान का होना तो सच्चे-असल संत का लक्षण, परिचय-पहचान है और उस परमप्रभु का यथार्थतः दर्शन परिचय-पहचान करने-कराने वाले तत्त्वज्ञान का न होना ही नकली, आडम्बरी, पाखण्डी, ढोंगी, कपटी, धूर्त, ठग एवं मिथ्याज्ञानाभिमानी संत का लक्षण, परिचय-पहचान है । अर्थात् मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द के अनुसार जो भगवत् कृपा प्रदत्त है-भगवान्-खुदा-गाॅड की तत्त्वज्ञान पद्धति से यथार्थतः जानकारी, प्रत्यक्षतः दर्शन एवं स्पष्ट बात-चीत करते-कराते हुये परिचय-पहचान कराने वाला भगवद्ज्ञान रूप तत्त्वज्ञानरूप सत्य वाला ही सच्चा तत्त्वदर्शी संत है, शेष तो योगी, महात्मा, ऋषि, राजर्षि, महर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, देव, महादेव आदि ही कहला सकता है-संत या सत्पुरुष नहीं-तत्त्वदर्शी संत तो कदापि नहीं कहला सकता है और यदि अपने को कहलवाता है तो वही ढोंगी-पाखण्ड-आडम्बर, ठग, मिथ्याभाषी, मिथ्याज्ञानाभिमानी एवं मिथ्याचारी होता है-कहलाने योग्य है । जैसे योगी-महात्मा-आध्यात्मिक महात्मा कहा करते हैं कि ---‘हंस संत की आत्मा, संत हंस की देह ।’ अर्थात् ‘हँस सन्त की आत्मा है और संत  हँस का देह होता है ।’ यह बात आध्यात्मिक योगी-महात्मा (ह ्ँसो-सोऽहँ व ज्योति वालों) के लिये हो सकता है मगर सच्चे संत यानी तत्त्वज्ञानी-तत्त्वदर्शी ही संत होता है, हँस वाला नहीं । ह ्ँसो-सोऽहँ व ज्योति वाला संत नहीं हो सकता है, हाँ, वह आध्यात्मिक योगी-महात्मा हो सकता है-होता है। यथार्थता तो यह है कि ह ्ँसो-सोऽहँ का अर्थ एवं भाव-संकेत भी आत्मा भी नहीं होता, वह तो जीवात्मा-आत्मा जीव होता है यानी ह ्ँसो हुआ । जीवात्मा (जीव-आत्मा) आत्माभिमुखी जीव और सोऽहँ हुआ आत्माजीव (आत्मा-जीव) जीवाभिमुखी आत्मा । अर्थात् जीव (अहं) का उत्थान का मार्ग है ह ्ँसो तथा जीव का पतनोन्मुखी मार्ग है सोऽहँ । आजकल के मिथ्याज्ञानाभिमानी आध्यात्मिक योगी-महात्मा तो नाजानकारी एवं नासमझदारी वश अहं यानी जीव रूप मैं को सः रूप आत्मा रूप वह में मिलाने (उत्थानपरक मार्ग पर ले चलने) के बजाय सः रूप आत्मा रूप वह को ही अहं रूप जीव रूप ‘मैं’ मिलाने (पतनोन्मुखी मार्ग पर ले चलने) लगा है अर्थात् अहं रूप जीवरूप मैं को सः रूप आत्मा रूप वह में मिलाने वाला-मैं वह है न कह बता कर उल्टी मति-गति से स्व रूप आत्मा (रूप मैं को ही अहं रूप मैं से जोड़ने वाला- वही मैं हूँ कह-बता रहा है जिससे मैं रूप अहंकार अभियान सः के सम्पर्क से बलवती अहंकार मिथ्याज्ञान-मिथ्याज्ञाभिमान से होता जाता है कि वही मैं हूँ (सोऽहँ) । जीव ही आत्मा तत्पश्चात् तत्त्वरूप परमात्मा के तरफ उठाने-पहुँचाने के बजाय आत्मा रूपी ज्योति को ही अहंरूप जीव से जोड़कर वही मैं हूँ- वह ज्योति ही मैं हूँ । यह बात भी गलत ही है फिर भी इस मिथ्याज्ञानाभिमानवश अपने को पहले संत बने सब और अब अहंकार का अन्तिम सीमा भगवान् ही बनकर अपने शिष्यों में घोषित करा ले रहे हैं। यही बस मिथ्याहंकार है । सोऽहँ ये अवतारी नहीं ही है संत भी नहीं हैं, भ्रमित योगी महात्मा हैं । 
       सद्भावी श्रोता बन्धुओं ! संत जाति-पाँति से किस प्रकार ऊपर होता है, उसकी गरिमा और महिमा क्या है ?उससे कैसे-किस प्रकार से जिज्ञासु को मिलना चाहिये ? उनकी (संत की)उपेक्षा का कुपरिणाम तथा आदर-सम्मान करने का सुपरिणाम आदि आवश्यक तथ्यों को उजागर करनेवाली घटित घटनात्मक कहानी को प्रसंगानुसार आप बन्धुओं को सुनाने चल रहा हूँ । आप बन्धुओं से एक बात का और ही अनुरोध करुँगा कि तथ्य मूलक कहानी करना सुनकर कहानी के बाह्य पहलुओं पर माथा-पच्ची करने-सही-गलत का विचार-विमर्श करना छोड़कर कहानी-छोड़कर मूलभूत तथ्यों को ग्रहण-जानने-समझने तथा जीवन को उस पर लगाकर जीवन में उसे अपना आगे बढ़ते रहना चाहिये । हाँ, तो आइये बन्धुओं कहानी के तरफ चला जाय।
      महाभारत समाप्ति के पश्चात् युधिष्ठिर से श्री कृष्णचन्द्र जी महाराज के बार-बार कहने पर युधिष्ठिर जी अश्वमेघ यज्ञ करने को तैयार हो गये और किये भी, मगर पूर्णाहुति के दिन भोज के समय की घटित यह घटना आश्चर्यमय सत्य पर आधारित है जिसे ध्यान से सुनें । ऐसी मान्यता थी है कि अश्वमेघ यज्ञ के अन्तर्गत विश्वविजय का सूचक संकेतक श्वेत अश्व जो विजय भ्रमण के पश्चात् आता था, उसे पूर्णाहुति के दिन यज्ञ कुण्ड में बलि करके आहुति दे दिया जाता था । एक तरफ यह हवन प्रक्रिया होता था और दूसरे तरफ भोज हो रहा था-हर राजा-महाराज, रैयत, भिक्षुक-भिखार, साधु-सन्यासी, सन्त-महात्मा, ऋषि-महर्षि आदि भोज में आमन्त्रित-शामिल थे । यज्ञ को पूर्ण तब माना जाता था, जबकि पूर्णता का सूचक धर्म-घण्टा सात बार स्वतः (बिना बजाये) ही बज जाय और यज्ञ कुण्ड से वह हवन (आहुति) किया हुआ बलि वाला श्वेत अश्व (सफेद घोड़ा) ठीक-ठीक हालत में बाहर आ जाय । यज्ञ सफल होने पर महापुण्य तथा असफल होने पर महापाप माना जाता है । जब घण्टा नहीं बजेगा और घोड़ा हवन कुण्ड से नहीं निकलेगा और जब तक वह सफेद घोड़ा हवन कुण्ड से नहीं निकलेगा यज्ञ को सफल नहीं मानकर असफल मान लिया जाता था ।       प्रारम्भ में जब श्री कृष्ण जी महाराज युधिष्ठिर से अश्वमेघ यज्ञ करने को कहा था तो युधिष्ठिर जी इन्कार कर गये थे, मगर लीलाधारी श्रीकृष्ण जी कब मानने वाले थे, उनको तो इस अश्वमेघ यज्ञ के माध्यम से भी अनेकानेक लीलाओं को समाज में प्रकट करना-कराना था जिसमें से कि एक यह घटना-कहानी-गाथा भी है । अन्ततः श्रीकृष्ण महाराज ने युधिष्ठिर को अश्वमेघ-यज्ञ करने के लिये राजी कर ही लिया, हालांकि यज्ञ की सफलता के प्रति युधिष्ठिर सशंकित एवं असफलता के भय से काफी भयभीत भी थे, फिर भी श्रीकृष्ण जी महाराज के बार-बार कहने पर स्वीकार करके यज्ञ प्रारम्भ कर दिये थे । अश्वमेघ-यज्ञ नाना भाँति के युद्ध समर्पण आदि के साथ होता-गुजरता हुआ सारी क्रियायें-प्रक्रियायें सुचारु रूप से सफलता के नजदीक रूप से आगे बढ़ रहा था, मगर अन्तिम में जाकर अवस्था में पहुँचकर देखा गया कि धर्म-घण्टा बजा ही नहीं । जब धर्म-घण्टा नहीं बजा तो बलि वाला श्वेत अश्व (सफेद घोड़ा) भी हवन कुण्ड से बाहर नहीं निकला । अब तो मचा कोलाहल । चारो तरफ ही हल्ला होने लगा-शोर मचने लगा कि यज्ञ असफल हो गया । घोर अनर्थ हो गया, महापाप हो गया । पूरे समाज पर शोक एवं भय का राज छा गया ।
     सद्भावी सत्यान्वेषी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! पाप-भय से भयाकुल हुये युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण जी महाराज से बार-बार ही कहने लगे कि आप से हम बार-बार कह रहे थे कि हम अश्वमेघ यज्ञ करने योग्य नहीं है । महाभारत के युद्ध में नाना प्रकार के पाप हुये होंगे इसलिये हमारे द्वारा किया गया यज्ञ सफल नहीं, मगर आप नहीं माने-जिद (हठ) करके यज्ञ के लिये मजबूर कर दिये । अब आप ही बताइये कि कितना-घोर अनर्थ हुआ कि न तो धर्म घण्टा ही बोला और बलि वाले श्वेत अश्व (सफेद घोड़ा) ही हवन कुण्ड से बाहर निकला । अब आप ही बतायें कि इस घोर पाप को मुझसे कराने में आप को क्या मिला ? आप तो लीलाधारी हैं, ऐसे कार्यों में आप बड़ा ही आनन्द मिलता है, मगर जिस पर घटता है-जिस पर पड़ता है वही समझता है। इस समय हमारे पर क्या पाप हो रहा है-कितना बड़ा पाप मेरे पर पड़ रहा है, इसका क्या हिसाब ?आप सर्वसामर्थी हैं, कोई उपाय करके मुझे सम्भालिये । हे प्रभो ! सम्भालिये । श्रीकृष्ण जी महाराज तो लीला पुरुष थे । उनको नाना भाँति लीला कर-करा कर समाज सुधार एवं समाजोद्धार हेतु मार्ग प्रशस्त करते हैं-मार्ग प्रदर्शन करते हैं-पथ-प्रदर्शन है । किसी को यश किसी को अपयश यानी जो जिस लायक होता है उसे वह प्रदान करते हैं । किसी को महत्व देते हैं तो किसी के रहस्य का रहस्योद्घाटन करके उसकी प्रतिष्ठा समाज में कायम करते हैं । श्री कृष्ण जी महाराज ने युधिष्ठिर से कहा कि ‘यज्ञ में और भोज में भी खोज किया जाना चाहिये कि आखिरकार गड़बड़ी हुई कहाँ ? उस गड़बड़ी को खोजकर पुनः उसे हल करना चाहिये-उसे ठीक किया जाना चाहिये। यदि ऐसा किया गया तो यज्ञ निश्चित ही सफल होगा । श्रीकृष्ण जी महाराज की बात सभी को युधिष्ठिर को भी जँच गई-अच्छी लगी तथा यज्ञ और भोज में होने वाले क्रियाओं-प्रक्रियाओं का जाँच पड़ताल होने लगा-खोजबीन शुरू हो गया । कहीं भी किसी भी प्रकार की कोई त्रुटि नहीं मिल रही थी, फिर प्रश्न बनता था कि जब कहीं कोई त्रुटि है ही नहीं तो यज्ञ सफल क्यों नहीं हुआ ? बार-बार जब जाँच किया गया तो सबको एकमात्र यही गलती या त्रुटि या कमी मिला कि राजधानी (हस्तीनापुर) से कुछ ही दूर जंगल में सूपन भगत एक संत रहते थे, जिन्हें डोम जाति वंश का होने-रहने के कारण भोज (यज्ञ-भोज) में आमंत्रित नहीं किया गया था । इस श्रीकृष्ण जी महाराज ने युधिष्ठिर से कहा कि संत का कोई जात-पात नहीं होता है । वह (संत) तो एकमात्र भगवान् का अपना ही आदमी-निजजन-यानी भगवान् का ही एक अभिन्न रूप होता है और उसे ही जात-पात के झमेल में डाल-मान कर आमंत्रित नहीं किया गया । मेरे समझ से तो उस संत के इस अपमान के कारण ही न तो धर्म-घण्टा बजा और न बलि का घोड़ा ही हवन कुण्ड से बाहर हुआ जिससे कि अश्वमेघ-यज्ञ असफल माना गया-हो गया । श्रीकृष्ण जी ने युधिष्ठिर से कहा कि संत सूपन भगत को सादर-सम्मानपूर्वक-आदर सहित आमंत्रित किया जाय तथा पुनः यज्ञ भोज-सामग्री तैयार करायी जाय तथा सर्वप्रथम उस संत (सूपन भगत) द्वारा भोग लगाया जाय तो मुझे लग रहा है कि धर्म-घण्टा बज जायेगा और हवन कुण्ड से बलि वाला घोड़ा भी ठीक-ठीक निकल जायेगा जिससे कि यज्ञ की असफलता सफलता में परिवर्तित हो जायेगा अर्थात् अश्वमेघ-यज्ञ पूर्णतः सफल हो जायेगा । श्रीकृष्णजी महाराज की बात सुनकर युधिष्ठिर बहुत ही प्रसन्न हुये तथा तत्काल ही सूपन भगत को आमंत्रित करने के लिये नकुल को भेजे । नकुल सहर्ष संत सूपन भगत को लिया लाने हेतु चल दिये । 
      सद्भावी सत्यान्वेषी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! सूपन भगत के पास पहुँचकर नकुल ने कहा कि- हे सूपन ! हे सूपन ! युधिष्ठिर जी महाराज का निमन्त्रण है-बुलावा है । नकुल ने सूपन भगत को निमन्त्रण तो दिया मगर उनके (नकुल के) द्वारा कोई विशेष श्रद्धा-विनम्रता का भाव प्रदर्शित नहीं किया गया। सामान्य जन जैसा ही उनके साथ बर्ताव-व्यवहार जैसे ही निमन्त्रण दे रहे थे जबकि परिस्थिति विशेष थी और उप परिस्थिति विशेष को सूपन भगत तो जानते ही थे, निमन्त्रण को अस्वीकार कर दिये। नकुल को पहले तो कुछ क्रोध उत्पन्न हुआ कि युधिष्ठिर जी महाराज के अश्वमेघ यज्ञ के भोज का निमन्त्रण यह डोम (चाण्डाल) होकर इन्कार कर दिया -अस्वीकार कर दिया, मगर संत-भगत समझ के क्रोध को प्रकट न करके बड़े ही उदास एवं क्रोध भाव से वापस हो गये । नकुल को समझना चाहिये कि सन्त का-भगवद् भक्त का कोई जात-कुलवंश आदि कुछ नहीं होता, संत का-भगत का तो सब कुछ एकमात्र भगवान् ही होता है, संत की जात, कुल, वंश, धर्म, बड़ाई आदि तथा गुरु, पिता, माता, भाई, बन्धु, पति, देवता, अभीष्ट इष्ट आदि सब कुछ ही एकमात्र- एकमात्र-एकमात्र भगवान् ही होता है । ठीक ही कहा है कि- जात न पूछो संत की पूछ लीजिये ज्ञान । मोल करो तलवार का पड़ा रहने दो म्यान ।। इसलिये संत से भगत से जब भी मिले श्रद्धा एवं विनम्रता सहित जिज्ञासु भाव से मिले; ममता और अभिमान वश नहीं; ममता अभिमान तो संत का शत्रु ही होता है । इसलिये ममता-अभिमान के साथ संत के पास कभी नहीं-कदापि नहीं जाना चाहिये। नकुल वापस आकर युधिष्ठिर जी महाराज से बताये कि- मेरे द्वारा दिये गये भोज के निमन्त्रण को सूपन भगत ने अस्वीकार कर दिया स्वीकार नहीं किया है। यह सुनकर युधिष्ठिर जी बहुत ही चिन्तित हो गये-बहुत ही घबड़ा गये कि अब क्या होगा ? अब अश्वमेघ यज्ञ कैसे सफल होगा ?या अब विफल नहीं हो सकता, असफल ही रहेगा । यह सब जान-देखकर सूपन भगत को यज्ञ-भोज हेतु बुलाने के लिये भीम तैयार हुये । भीम जब सूपन भगत को बुलाने हेतु जाने लगे तो युधिष्ठिर जी ने कहा कि श्रद्धापूर्वक बुलाइयेगा । भीम सूपन भगत के पास पहुँचकर प्रणाम-पाती किये और श्रद्धापूर्वक कहे कि-हे भगत जी ! आप को युधिष्ठिर जी महाराज के अश्वमेघ यज्ञ में भोज हेतु युधिष्ठिर जी महाराज के तरफ से ही निमन्त्रण है, उसे स्वीकार कर भोज में सम्मिलित हुआ जाय । सूपन भगत ने भीम से भी निमन्त्रण अस्वीकार करते हुये स्पष्टतः शब्दों में कहा कि-भोज निमन्त्रण हेतु अब ही सूपन भगत याद आये हैं जबकि यज्ञ असफल हो गया है तब ? पहले सूपन याद नहीं आये ? तब सूपन चाण्डाल थे ? डोम थे और अब सूपन ! भगत हो गये ? जाइये ! जाइये !! जाइये!!! सूपन को भोजन खाने की आवश्यकता नहीं है । अपना यज्ञ आप लोग सफल कर-करा लिये-सूपन की क्या आवश्यकता हैं ? भीम को तो बहुत ही क्रोध हुआ और ग्लानि भी हुई, मगर यज्ञ असफल हो रहा था । इसलिये ही निवेदन किये तब सूपन कहा कि जा ! जा !! युधिष्ठिर का यज्ञ है तो उन्हीं को भेज दीजियेगा। आप का निमन्त्रण हमें स्वीकार नहीं है । भीम भी क्रोध मिश्रित उदासी के साथ वापस लौट आये । 
     सद्भावी श्रोता बन्धुओं ! उस समय जबकि भीम वापस आकर युधिष्ठिर से सूपन भगत के अस्वीकार वाली बात दिये फिर महाराज युधिष्ठिर स्वयं अपने से सूपन भगत को मनाने गये महाराज युधिष्ठिर ने बहुत आदर पूर्वक सूपन भगत के यहाँ जाकर उनको प्रणाम किया और कहा कि भगत जी आप हमारे यज्ञ में चल कर हमारे यज्ञ को सफल बनाइये मगर सूपन भगत तैयार नहीं हुये कहे कि जब यज्ञ असफल हुआ तो मेरा याद आया पहले क्यों नहीं आये अब जाओं कोटी-कोटी यज्ञ करो तब मेरे पास आओ महाराज युधिष्ठिर भी बड़े निराश होकर लौट गये । हब हस्तिनापुर में बड़ा शोक का माहौल हुआ कि भाई अब यज्ञ कैसे सफल हो बड़ा पाप हुआ तो फिर अब फिर भगवान् श्रीकृष्ण से गुहार लगाया गया तो भगवान् श्रीकृष्ण जी ने द्रौपति को कहा कि तुम जाकर सूपन भगत् को बुलाकर लाओ द्रौपति को भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि तुम किसी सन्त को मनाने जा रही हो आदर भाव सम्मान पूवर्क मनाकर लाओं तब दौपती नन्गें पाव अपने राज्य से सूपन भगत के आश्रम तक पैदल जाकर सूपन भगत को मनाने लगती है जैसे कहा गया है कि-- 
सन्त मिलन को जाइये तज माया अभिमान
           ज्यों-ज्यों पग आगे धरे काेिट यज्ञ समान ।
      द्रौपति का भाव भक्ति देख कर अभिमान गुमान से रहित देखकर सूपन भगत् पीघल जाते हैं और द्रौपति के साथ चलते है। फिर यज्ञ में उनका खूब आदर-सत्कार होता है । फिर उनका महाराज युधिष्ठिर का यज्ञ सफल होता है। ये सारा खेल कर के भगवान् श्रीकृष्ण ये जनाना चाहते थे कि देखों संत का कोई जात-पात नहीं होता है । वह (संत) तो एकमात्र भगवान् का अपना ही आदमी-निज-यानी भगवान् का ही एक अभिन्न रूप होता है और उसे ही जात-पात के झमेल में नहीं डालना चाहिए । यानी इस उक्ति-वाक्य के माध्यम से सन्त-महापुरुष की महिमा-गरिमा दर्शायी गयी है कि यदि आप शरणागत भाव में कम से कम बारह वर्ष तक सन्त की टोली में रहें, तब जाकर कहीं आप सन्त की एक ठिठोली यानी सन्त के एक खेल को-एक बोली को-एक बात-एक कार्य को सीख जान पायेंगे । आज की तरह आप महानुभावों के समान नहीं कि आये-गये किसी सन्त-सत्पुरुष के दर्शन के लिये दो-चार घड़ी-घण्टा ठहरे नहीं कि उतीन ही देर में सन्त की अनेकों गलतियाँ-अनेकानेक कमियाँ-अनेकानेक दोष-अनेकानेक खामियाँ देखने लगते हैं । लगता है कि वही देखने आये थे । वास्तविक तो यह है कि सन्त में कोई कमी, कोई दोष, कोई गलती खामी होता ही नहीं; उनकी अपनी कमियाँ-खामियाँ ही प्रकट होकर सन्त में उन्हें आभासित होने लगती है । सन्त के पास श्रद्धालु एवं जिज्ञासु भाव से तो आते-जाते नहीं, तो सत्यता कैसे जानें-समझें ?